मानवी सुख की उस खोह में
फैलाए हुए हाथ की गर्मी को
नहीं पकड़ सका मैं
जैसे पारे की प्रजाति
जिस हिस्से में
चुम्बन से कौंधी थी
जब जाल स्त्रोत की धार
जिसने कंपाया था उन जातियों को
उनकी धातुई चालों में
कि उन्मुक्त वार्तालाप के सारे विलोम
एक खूंखार पतझड़ में बदल गए
और अदृश्य स्वाद के लहरों में
सिर चकरा देने वाले पेंचदार रास्ते
अधूरे टुकड़ों सा
गर्म दिन कीचड़ में बुझ गए
मैं चाहता था तैरना
लहर दर लहर
विस्तृत जिंदगियों में
कि मुक्त से मुक्त मुहानों में भी
पानी के सोतों से हाथ मलता रहूं
और वैगर रोटी के
उन अंतिम दिन तक
सारे दरवाजे खुले मिले
यही था वह ठिकाना
जहां आत्मा के अस्पष्ट अंतरालों में
दुरूह झाड़ियों के बीच
सुसुप्त परिधानों में
वैग़र शांति और जमीं के
कोई भी रक्ताभ काया
माया के उन निरीह दर्दों से
परमाणु के शक्ल में बदल जाती है.