बहुत क्षण ऐसे आये
जब आसमान में तने
ऐन सूरज के नीचे
गुम हो गई सारी पंक्तियां
और तन गई
कोलतार सी नंगी देह
ठीक जवाकुसुम की तरह
विस्तारित खुली आंखों में
अंदर की आवारगी नहीं छूटी थी
और लाख चाहने पर भी
लालटेन जला ही नहीं था
दोपहर के शाखो से टकराते
नंगे पैर धूप से जलते रहे
और फागुन के गीत
उन होंठों में आया ही नहीं
जहां देह के पसीने
हथेली में बंद हो गए थे
अपनी जगह के लिए
कभी कभी तो न चाहते हुए भी
चप्पे चप्पे धूप खिल जाते हैं
और राहत कार्यों की गिट्टियां
रोटी के मुक प्रश्न में
हथेली में आ जाते हैं.