कितने बदल चुके हैं
सिकुड़े हुए अंतरिक्ष में
मौन तिलक लगाकर
मेहराब से टूटता कोई पत्थर
कि युगो पुराना
अदृश्य हाथ
पसीने से सराबोर होकर
इसी पत्थर ने
मेहराब की सर्जना की थी
पहली बार मुझे लगा
अंतरिक्ष में दिशाहीन आवेश
चेहरे पर आंखें गड़ाए
टुकुर टुकुर देख रहा है
उस गोद में बसे क्षण को
जहां संदिग्ध धड़कन
किसी जीने के साक्षी में
कैसे शीतल छाया में बदल जाते हैं
समय के वृक्ष में
जहां धरती जन रही है नयी संतानों को
और दिन रात के धूप छांह में
कदाचित कोई अधूरा गीत
निश्छल धरती की गति से
किसी सुरंग में बदल रहे हों
वहां पत्थरों के गीतों से
मेहराब की सर्जना व टूटन
कहां किस मोड़ पर
वन पाखी सा उड़ता फिरेगा
कि सारी उम्र का महुआ
तैरता रह जाए
बत्तखों से भरे तालाब में.