मैं अंतरिक्ष में भटक रहा हूं
पिंजरे में कैद मात्र एक शून्य की तरह
न कोई मेरा पूर्व में है न पश्चिम में
उत्तर दक्षिण की दिशाएं लुप्त हो गई है
लचीली काल रेखा भी
मेरे साथ घूम रही है
मैं आश्वस्त हूं
सभी बंद रास्तों के बावजूद
महाशुन्य मेरी आंखों में नहीं उतर पाया है
मेरी समझ से
मैं उस काल में अस्त हो रहा हूं
जहां दिशाएं निर्वाण की तरह
लटकने को आतुर है
जहां कील ठोकने की दीवारें नहीं है
नहीं है कोई संवेदनाएं
ना चिड़ियों का मधुर संगीत
ना ही घर लौटते मछुआरे
सबकुछ बेसुरा
जैसे भयानक पुरवैया में
मैं नंगा हो गया हूं
मेरा वादा है
उन फूलों से
जो ढांक लेती थी मेरे सारे उमस को
उन नदियों से
जो पाट देती थी मेरे सारे खेतों को
उन हवाओं से
जो सूखा देती थी मेरे सारे पसीनों को
कि अखबार की सुर्खियां
नहीं बनने दूंगा
चाहूंगा कि
मेरा आंगन खिले
मेरी किताबों की आलमारी महके
पूरी की पूरी जिजीविषा के संग
बावजूद उन वादों के पन्नों में
मैं अपने आपको देख लेता हूं
जैसे किसी ने मुझे देखा है
भ्रम व भय के जाल से
ताकि होने के वायदे पर
मैं होता हूं
उन कुमार्गों में
न जिसे मैंने चुना था
न जिसने मुझे चुना था
न जाने क्यों
मुझे उठना चाहिए
इस अंतरिक्ष से परे
और मन के गुलाब में
कोई कांटा उगा लेना चाहिए
हां वे गलियां
अभी बंद नहीं है
तभी तो फूल, नदी, हवा
मेरी सांसों में बस गई है
और शून्य के परतों को
मैं बुहारने में लगा हूं.