तुम सुनो उतना ही
जितना मैं देखती हूं
अवसन्न हवा में
सोचो की आहटे
कब जान पाती है
वर्तमान की मेरी
अकथ वेदना को
आधे चांद की साक्षी में
गली के सूने को ताकती मैं
जब नींद के पर्वत से उठकर
घुसती हूं रसोई में
परछाइयां ढहती मीनारों सी
मैं दीवार घड़ी बन जाती हूं
न जाने कब ठीक होगा समय
मैं पढ़ पाऊंगी कविताएं
दे पाऊंगी दस्तक
उन ऊंचें दरख़्त को
जो ऊंचा कर सके
मेरी विचारों को
मैं कैलेंडर नहीं बन सकती
जहां तुम गोद सको
अपने स्वार्थी साक्षात्कार के दिन
क्या तुम नहीं आंक सकते
मेरे हृदय पुष्प में एक हरा पत्ता
और मेरे मन के आंगन में
क्या कोई तुलसी नहीं मुस्कुराएगी
तुम उतना ही सुनो
जितना मैं देख सकती हूं तुम्हें
किसी ठीक होते समय में
फूलों के गुच्छों के बीच
और बची रहे वे आंच
जब तुम पहली बार
मेरी आंखों में उतरे थे.