समय तब भी बरसता था
जब नहीं दिखे थे
अपनी आंखों का सूरज
और भूले बिसरे बीज
अक्षांश पर टंगी हुई
किसी दीर्घ काल की ग्रहदशा से
मेरी आंखों में उतर आया था
नष्ट और भ्रष्ट करती
तमाम कुव्यवस्थाएं
काल और धूल के संबंध में
व्याख्या देने को आतुर हैं
जिधर से धूप के टुकड़े
जरा तिरछे होकर
उन किताबों में गिर रहे हैं
जहां तमाम अक्षर
लोहे सा गर्म हो रहे हैं
अखंड समय में
समय की गति से भागते
उन दरिंदों को देखा जा सकता है
जिसे हम आदमी कहते हैं
प्रतीक्षा और प्रेम में
अवकाश प्राप्त क्षण
हर बुरे समय के बीच
एक पुल बन जाता है
जहां प्रकृति और आदमी
एक दूसरे के खिलाफ लड़ता है
और बुरे संबंध के तिनके
सांस्कृतिक धरोहर बन जाते हैं
हर दिन
विप्पतियों जैसा क्रमबद्ध
अधूरे पन से भरा
अंतर्मन के अंजर पंजर में
अपनी पहुंच से बाहर
काल को रेखांकित नहीं कर पाती
और जो नहीं होते हुए भी
संबंध के रेखांकन पर
विस्मृत के पसीने सा
समय बरस जाता है.