अपनी अप्रत्याशित उपस्थिति का
रतिकलांत देह लेकर
अनाहत गली के कोने से
जब सहसा पतझड़ आ जाते हैं
कितने पंक्षियों के पंख
महारती संगम में
टूटे सपनों की कड़ियां लेकर
बौराये आम की तरह
पूरे आंगन में पसर जाते हैं
इतनी बड़ी धरती में
यकीन होने के सारे ताले
कहीं उस बीज वस्तु की
उदासीन राजमार्ग पर
दरवाजों के साथ बंद है
तो कहीं पेड़ से लिपटी लताओं सा
अपने होने के आकाश में
चाभी ढूंढ़ता रह जाता है
अंधेरे से निकल
लोहे की पटरी पर जब
रोता बिसुरता जिंदगी
दौड़ने को तैयार है
तब अनभोगे दुःख के जंगल
विश्राम और विराग के छंद को तोड़
लंबी छाया में तब्दील हो जाते हैं
उधड़ी दीवार पर
पतझड़ और जिंदगी के जुगनू
किसी तैलचित्र सा
काली अंधेरी रात में
चमगादड़ बनने को तैयार नहीं है
खुसर फुसर के सारे षडयंत्र
गिद्धों ने उठा लिए हैं
वह हंसी झीनी से मुस्कान
जिंदगी के घोड़े पर बैठा
जब अप्रत्याशित आंगन में आता है
तब जीवन के सारे पतझड़
वसंत में खिले फूलों सा
जीवनदायनी पगडंडी बन जाते है.