दर्पण में हूं मैं
आज के उजाड़ मानवता की तरह
जहां से प्रेम
पहाड़ों के पीछे सरक गया है
और हवा
समुद्र में डूब चुकी है
गलियों के बीच में
जहां मेरे दरवाजे खुलते हैं
और बंदी के दौरान
बच्चे क्रिकेट खेल लेते हैं
कई दिनों से
प्रार्थना के स्वर टूटे हैं यहां
और तीखे धूप में
वे गलियां
आईने में तब्दील हो गए हैं
धधकती लपटों में
मेरी सारी थकी हरियाली
और उमस भरी हवा
उसी दर्पण में है
जहां मधुर वसंत के आगमन की प्रतीक्षा है
ताकि उनके नाम कोई पत्र लिख सकूं
जो पतझड़ में टूटे पत्तों के संग
मेरे कमरे में आ जाते हैं
और पूरा कमरा वसंत में तब्दील हो जाता है
उनके भीतर के दर्पण की तरह
फर्क के परवाह में प्रेम
कोई आकाश नहीं बन पाता
और दुपहर के धूप सा
बेकार पड़ी चीजों के बीच
कोई मधुर याद
जिसे लेटर बॉक्स में डाला जा सके
याद नहीं आता है मुझे
कि कभी किसी दर्पण में देखा हो
शाम के खाली आकाश में
जब मेरा ध्रुवतारा निकलता है
मैं उस दर्पण से मुक्त हो जाता हूं
और मेरा चेहरा
प्रेम के आईने से परे
उन यादों को खोज निकलता है
जहां न हम तुम
और हमारी दीवारें होती हैं
न प्याज के छिलके सा
हमारा प्रेम सरकता जाता है
उन पहाड़ों के पीछे
न ही तुम्हारे समुद्र में.