मेरी इच्छा होती है
देह के सुस्वाद अंधकार से
हरे मद की तरह
किसी नरम मुंगिया रौशनी को
अपनी बाहों में भर लूं
मेरी इच्छा होती है
रात के अंधकार में
शिशिर से भींगे आंख की तरह
झिलमिला रहे तारों को
अपने सीने में टांक लूं
खिड़की के भीतर से
मृतकों के धुंधले चेहरे लेकर
किसी श्मशान के सफेद बगुले में
पिरामिड बन जाने की इच्छा
कभी भी नहीं रही है
और नक्षत्रों के पार
स्वाति तारे की गोद से
समुद्र के पेट की तरह
मैं नहीं चाहती थी
अपने आंगन को फांदना
आखिर आकाश के विस्तृत डैनों के भीतर
मैं कोई फूल सूंघना चाहती थी तो
तीखी धूप की गंध से
मेरा हृदय पृथ्वी को छोड़
सुदूर दिगंत पर कोहरे से लिपटे
खिड़की के भीतर
कोड़ों की पीड़ा से थक हारकर
क्यों नहीं बंद हो जाती है
इच्छाओं की वो सारी धड़कने
जहां पौष की चांदनी में
देह की गंध
तुम्हारे विस्तर पर भुला चुकी हूं
मेरी इच्छा
गहरे नीले अत्याचार से
तुम्हारे पृथ्वी को छोड़
गुब्बारे की तरह उड़ चुकी है
जहां नरम मूंगिया रौशनी
मेरी ओर बढ़ती चली आ रही है.