भारत के आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में महिलाओं की खरीद फरोख्त जारी है.....
विकास की नई इबारतों को लिखने वाले देश भारत में अब भी तमाम कुपथाएँ संचालित हैं जिसमें से एक है अपनी ही पुत्री को उपयोगी वस्तु के समान किराए पर देने या बेचने की प्रथा I यह प्रथा आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में आज़ भी पुरज़ोर है। मूलता राजस्थान, झारखण्ड,छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल,बुन्देलखण्ड व पूर्वोत्तर भारत के प्रदेशों में यह प्रथा विकराल रूप धारण किए हुए है | इन प्रदेशों के सुदुरवर्ती ग्रामों में खासकर राजस्थान में बकायदे महिलाओं की मण्डी लगती है जिसमें लड़कियों के पिता व भाई द्वारा बोली लगाते हुए महिलाओं का मूल्य तय किया किया जाता है | महिलाओं को एक वर्ष तक अपने पास रखने का किराया अलग | अधिक वर्ष तक रखने का किराया अलग और जीवनभर रखने हेतु एकमुश्त धनराशि अलग से तय की जाती है तथा पावती के रूप में बकायदा रसीद दी जाती है।
इस प्रथा अन्तर्गत क्रेता को यह अधिकार होता है कि वह क्रय की गई अथवा किराए पर ली गयी महिला का दैहिक सोषण करे | उससे ससर्ग कर बालक/बालिका उत्पन्न करें | जुल्म की इन्तहा तो तब हो जाती है जब उत्पन्न हुई संतानों का यह पालन पोषण कर किशोरवय करते है तथा बालको को घरेलू नौकर या महिलाओं का दलाल राजू/पप्पू गुड्डू / मुन्ना बना देते है और लड़कियों को किराए पर दे देते हैं या बेच देते हैं।
आधुनिक सभ्य समाज में जब हम अपने आपको सभ्य/सुशिक्षित एवं विकासवाद का पर्याय मानते है उस समय यह आदिम युगीन सभ्यता की प्रतीक प्रथाएँ हमारे विकास पर प्रश्नचिन्ह लगाकर भारतीय सामाजिक संरचनात्मक ढाँचागत विकास का उपहास उड़ाती हुई प्रतीत होती है साथ ही सरकारी योजनाओं के पारदर्शिता पूवर्क क्रियान्वयन की भी पोल खोलती हैं | कहने को भारत में न्याय का राज्य है | हम सम्प्रभु हैं तथा तमाम सरकारी अधिनियम / योजनाएँ / नीतियाँ महिलाओं के संरक्षण,कौशल वृद्धि एवं आत्मनिर्भर बनाने का दावा करती हैं साथ ही अनुसूचित जनजाति / अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग को आरक्षण व तमाम अतिरिक्त सुविधाएँ प्राप्त है पर उनके लाभ से यह अब भी बंचित है,जिस तरह सरकार महिलाओं की सुरक्षा / संरक्षण व विकास का दावा करती है उसी प्रकार स्वैच्छिक संस्थाएँ भी जन जागरूकता के माध्यम से महिला विमर्श कर महिला सशक्तिकरण को अपना लक्ष्य बता विभिन्न सरकारी अनुदानों को प्राप्त कर अपना उल्लू सीधा करती है पर परिणाम ढाक के तीन पात क्योंकि कहीं न कहीं कुछ ऐसा सुराख अब भी शेष है जिसकी भरपायी बाकी है। अता जरूरी है कि हम कुरितियों से ग्रस्त इस समाज में सहभागिता विधि से अवलोकन करें उनका अध्ययन करें और निष्कर्ष निकालकर नीतियाँ बनाये तभी इस प्रथा से छुटकारा प्राप्त हो सकेगा |