वक़्त की
बेरहम
सिलवटो में
उलझकर
बदरंग हो रहा
मेरा मन,
अथाह सागर की
जल रश्मियों को
अपनी अंजुरी में भर
सोख लेना चाहता है!
उच्च पर्वत शिखर को
अपने कदमों तले रौंद
विजय पताका
चाहता है फहराना!
पिघल रहे आसमान से
रिस रिस कर
टपकती
ओस की बूंदो को
संचयित कर
नदियाँ बहाना चाहता है!
सूर्य प्रकाश को
एक अन्धेरी कोठरी में
कैद कर
सितारों की छाँव में
वीणा बजाना चाहता है!
पर;
नही कर पाता
क्योंकि
कपोल कल्पित कल्पनाएँ
वास्तविकता के सम्मुख
दम तोड़ देती हैं
और
समय के चीथड़े
दुबक जाते है
उन सिलवटो में पसर कर
सिसक रहे
मन में
जिसके जज्बे में
दुनियाँ उलटने का
दम था !!
*** दीपक श्रीवास्तव ***
16-2-2016 / मध्यरात्रि