बहुत समय पहले की बात है, जब जगह-जगह पर मानव और देवताओं के बीच संघर्ष चल रहा था। मानव और देवताएँ अपने-अपने सृजनात्मक काम में सबसे श्रेष्ठ बनने की चुनौती दे रहे थे।
एक दिन, विश्वकर्मा नामक देवता अपनी पत्नी और पुत्र सहित पृथ्वी पर आये और वहां एक छोटे से गाँव में बस गए। विश्वकर्मा का पुत्र, एक युवा शिल्पकार, बहुत ही प्रतिबद्ध और कुशल था। उसका नाम धर्मपाल था।
एक दिन, गाँव के लोग अपने घरों की मरम्मत के लिए देवताओं की मदद मांगने आए। विश्वकर्मा ने अपने पुत्र को ले जाकर उनकी सहायता करने के लिए भेजा।
धर्मपाल ने गाँव के हर घर को अत्यंत कुशलता से मरम्मत की और सभी को अपने काम से प्रसन्न किया। देवताओं ने इसके परिणामस्वरूप गाँव को अधिक खुशी और सुख-शांति से भर दिया।
विश्वकर्मा और उनका पुत्र धर्मपाल गाँववालों की यशोगाथा बन गए और उनका नाम विश्वकर्मा पूजा के साथ जुड़ गया। इसके बाद से, हर साल विश्वकर्मा पूजा को मनाकर विश्वकर्मा और उनके पुत्र की प्रसन्नता की जाती है और उन्हें मान्यता दी जाती है।
इस पूजा में लोग विश्वकर्मा के प्रति आभार और समर्पण का प्रतीक दिखाते हैं, और विश्वकर्मा की कृपा के लिए प्रार्थना करते हैं। यह पूजा विशेषकर शिल्पकारों, मकान निर्माणकर्मियों, और उन सभी लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो सृजनात्मक काम में जुटे हैं।