अन्न यानी भोजन बहुत ही कड़ी मेहनत करने के पश्चात मिलता है। मनुष्य सारे कर्म-कुकर्म इसी खाने के लिए करता है। आज भी हमारे देश में एक बहुत बड़ा वर्ग है जिसे दो समय तो क्या एक समय का भोजन भी नहीं मिलता। कुछ ऐसे भाग्यहीन लोग भी हैं जो कई कई दिन तक भूखे रहते हैं। बहुत से लोग ऐसे भी मिल जाएँगे जो कचरे से भोजन बीनकर खाते हुए दिखाई दे जाएँगे। यदि इनके बारे में मन में एक बार सोच लिया जाए तो मनुष्य कभी अन्न को व्यर्थ नहीं फैंक सकेगा। उसे अवश्य ही ऐसा करते समय कष्ट होगा।
हमारे पास बहुत पैसा है हम जो चाहे खरीद सकते हैं, इस प्रकार अपनी झूठी शान दिखाते हुए इस अन्न को कभी बर्बाद नहीं करना चाहिए। जहाँ तक हो सके इसे न स्वयं फैंकिए और न ही दूसरों को फैंकने दीजिए। अपनी प्लेट में उतना ही भोजन डालना चाहिए जितना खाया जा सके। आवश्यकता से अधिक भोजन लेकर उसे खा नहीं पाने की स्थिति में उसे कूड़े में फैंक देने को समझदारी नहीं कही जा सकती। यह मनुष्य की मूर्खता का ही परिचायक माना जाता है।
बर्तन से पूरी तरह पोंछ कर खाना खाने वाले का लोग मजाक उड़ा सकते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि मनुष्य छोटा हो गया। यह उन लोगों की मूर्खता कही जाएगी कि वे अन्न का महत्व नहीं समझते, तभी ऐसी ओछी बात कर रहे हैं। यदि उनमें थोड़ी-सी भी मानवता होती तो वे सहृदयता का ही व्यवहार करते। मनुष्य को इस बात का सदा स्मरण रखना चाहिए कि अनाज के एक-एक दाने से कितना अन्न उत्पन्न होता है। अन्न के एक दाने को बर्बाद करने का अर्थ होता है बहुत सारा खाद्य नष्ट करना।
एक किसान जो सबका अन्नदाता है, वह स्वयं भूखा रहकर दिन-रात कड़ी मेहनत करता है तब जाकर अनाज पैदा करता है। उसके अलावा सर्दी, गर्मी, धूप, बरसात, आँधी, तूफान आदि की परवाह किए बिना हम सबके लिए अनाज उगाता है। परन्तु जब कभी अतिवृष्टि, अनावृष्टि अथवा ओलावृष्टि के कारण उसकी फसल चौपट हो जाती है, तो उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं होता। उसकी सारी फसल नष्ट हो जाती है, तब भी वह हिम्मत नहीं हारता। फिर नए जोश से भरकर हमारे लिए अन्न उपजाता है।
खाना फैंकते समय यह सोचना चाहिए कि आपकी माता या पत्नी प्रात: जल्दी उठकर बहुत प्यार से भोजन पकाती हैं। उसे खाने के स्थान बरबाद कर देना किसी भी तरह से उचित नहीं है। उनकी मेहनत बेकार हो जाती है, उन्हें कष्ट होता है। साथ ही परिश्रम से कमाया गया धन भी व्यर्थ होता है। इसलिए थाली में झूठा छोड़ना अपनी शान नहीं समझनी चाहिए। मन जब तक तृप्त न हो जाए तब तक भोजन खाना चाहिए अर्थात जब तक पेट न भरे तब तक खाना चाहिए। प्रयास यही कारण चाहिए कि अन्न की बर्बादी न की जाए।
हमारी भरतीय संस्कृति में अन्न को ब्रह्म यानी भगवान कहा जाता है। इसका सीधा-सा अर्थ है कि अन्न का अपमान करना ईश्वर का अनादर करना कहलाता है। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि भोजन झूठा छोड़ने से या अन्न को बर्बाद करने से पाप लगता है। शायद इसके पीछे यही कारण होगा कि लोग पाप के नाम से डर जाएँ और अन्न का सम्मान करें उसको व्यर्थ ही बर्बाद न करें।
जहाँ तक हो सके अन्न को बर्बाद होने से बचाना चाहिए। बहुत से लोग ऐसे हैं जो भोजन की थाली सामने रखकर पहले परमात्मा का धन्यवाद करते हैं जिसने इस जीवन को शक्ति सम्पन्न बनाने और रोगरहित बनाने के लिए भोजन देकर अनुगृहीत किया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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