पेट भरने के लिए मनुष्य को क्या चाहिए? उसे दो रोटी और थोड़ी-सी सब्जी या दाल चाहिए। शेष सब चोंचलेबाजी होती है। मनुष्य की भूख यदि दिखावटी है तब तो उसके सामने छप्पन भोग भी परोस दिए जाएँ तो भी वह अतृप्त ही रहेगा, उसका पेट नहीं भरेगा।
कैसी विचित्र विडम्बना है कि चौरासी लाख योनियों में एक मानव ही है जो धन कमाता है, अपने लिए अन्न जुटाता है परन्तु फिर भी उसका पेट कभी नहीं भरता, वह भूखा ही रहता है। इसका कारण है उसकी लालसा। पेट भरने लायक प्रायः मनुष्य कमा लेते हैं। समस्या तभी उत्पन्न होती है जब उसे और अधिक, और अधिक चाहिए होता है।
इसके विपरीत इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मनुष्य के अतिरिक्त कोई अन्य जीव ऐसा नहीं है जो धन कमाता हो। परन्तु वह कभी भूखा नहीं मरता। इसका कारण है कि जब वह पेट भरकर खा लेता है तो उसे सन्तुष्टि हो जाती है और वह मस्त हो जाता है।
इन्सान बहुत ही नाशुकरा जीव है। मालिक ने उसे झोलियाँ भर-भरकर खजाने दिए हैं। वह कभी उसका अहसान नहीं मानता। वह सदा प्रभु को इसलिए कोसता है कि उसे दूसरों की अपेक्षा कम मिला है।वह चाहता है दुनिया की सारी नेमते उसे मिल जाएँ और सब से उसे क्या लेना देना। इसी स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण ही मनुष्य जीवन भर दुखी रहता है।
वह इस सत्य को भूल जाता है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ भी नहीं मिलता। अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार यथासमय उसे सब कुछ बिना माँगे स्वयं ही प्राप्त हो जाता है।
दूसरों से होड़ करते हुए वह प्रथम स्थान पर रहना चाहता है। इसी चिन्ता में दिन-रात घुलता रहता है कि कोई उसे किसी भी क्षेत्र में पछाड़ न दे। इसलिए अपनी सामर्थ्य से बढ़कर कदम उठा लेता है और मुँह की खाता है।
वैसे देखा जाए तो हम सबने अपनी आवश्यकताओं का इतना अधिक विस्तार कर लिया है कि उसमें घिरकर परेशान रहने लगे हैं। जिस मालिक ने जन्म देकर संसार में भेजा है, वह सबको सदा प्रसन्न देखना चाहता है। इसलिए बिना कहे ही वह मनुष्य की सारी इच्छाएँ देर-सवेर पूरी करता रहता है।
कुछ अपवादों को यदि छोड़ दें तो भोजन की कमी मनुष्य को कभी भी नहीं होती। दाल-रोटी तो उसे मिल ही जाती है। देखा जाए तो रसोई का खर्च बहुत ही कम होता है। बाकी सारा तामझाम दूसरों को दिखाने के लिए ही होता है।
अपनी नाक ऊँची रखने के लिए मेहमानों के सामने थ्री कोर्स या फोर कोर्स खाना परोसना होता है। यानि पहले ठण्डा पेय फिर सूप और साथ में कई प्रकार के शाकाहारी व मांसाहारी स्नैक्स सर्व करने होते हैं। फिर कई प्रकार के शाकाहारी व मांसाहारी खाद्यान्न परोसे जाते हैं। अन्त में मीठे की वैरायटी परोसी जाती है। इसके साथ ही शराब के जाम भी टकराते रहते हैं, जो स्टेटस सिम्बल बन रहा है।
केवल अतिथि सत्कार करने में ही नहीं बल्कि शादी-ब्याह और पार्टियों में इसी तरह से बढ़-चढ़कर बेहिसाब खर्च किया जाता है। अब बताइए ऐसे मेँ दाल-रोटी बेचारी क्या करेगी? इन शाही व्यञ्जनों को जुटाने के लिए तो मनुष्य का परेशान होना बनता है।
पहले घर में बन्धु-बान्धव आते थे तो दिनों-महीनों रहते थे। न मेहमान को बुरा लगता था और न ही मेजबान को। इसका कारण है कि उन दिनों दिखावा नहीं होता था और सम्बन्धों में मधुरता होती थी। थोड़ा मिला तो शिकायत नहीं और अधिक मिल गया तो भी कोई बात नहीं। यदि किसी पक्ष से कोई कमीबेशी हो भी जाती थी तो एक-दूसरे की कमी को ढक लिया जाता था।
दाल-रोटी की कमी वह मालिक होने नहीं देता। वह तो अपने असंख्य हाथों से ब्रह्माण्ड के सभी जीवों का भरण-पोषण करता है। अपनी इच्छाओं को हम जितना चाहें बढ़ा सकते हैं और उन्हें जुटाने के लिए मनचाहा परिश्रम कर सकते हैं। फिर भी कहीं आकर तो सन्तोष की एक रेखा खींचनी ही होगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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