आज की व्यस्त दिनचर्या में से अपने लिए थोड़ा-सा समय निकाल पाना सबसे कठिन कार्य लगता है। चाहे कार्यक्षेत्र की थकान की अधिकता हो अथवा कोई छोटी-मोटी बिमारी, उन सबको नजरअंदाज करते हुए मनुष्य बस अपने काम में जुटा रहता है। उसके पास आराम करने का समय ही नहीं होता।
मनुष्य अपने दायित्वों को निभाने के लिए कोल्हू के बैल की तरह दिन-रात खटता रहता है। और वे दायित्व हैं कि सुरसा की तरह मुँह फैलाए बढ़ते ही जाते हैं और उसे चैन नहीं लेने देते।
हर मनुष्य अपने घर और दफ्तर के कार्यों में इतना अधिक उलझा रहता है कि वह अपने सामाजिक, पारिवारिक, धार्मिक दायित्वों के निर्वहण करने में पिछड़ता जा रहा है। इस तरह वह सबसे कटता हुआ बस अकेला होता जा रहा है।
कंक्रीट के जंगलों में रहता हुआ मशीन बनता जा रहा मानव मानो संवेदना शून्य हो रहा है। घर के पड़ोस में क्या हो रहा है, इससे अनजान रहने लगा है। देश-दुनिया की तो चर्चा करना ही व्यर्थ है।
आज के भौतिक युग में हर इन्सान को आराम की हर उस वस्तु की कामना रहती है जो बाजार में उपलब्ध है या उसके पड़ोसी अथवा उसके भाई-बन्धुओं के पास है। वह किसी से हीन कहलाना पसन्द नहीं करता। आयुपर्यन्त वह रेस में दौड़ता रहता है पर हारना नहीं चाहता।
इसलिए एक के बाद एक नई और मँहगी चीजों को खरीदने की होड़ उसे बेचैन करती रहती है। इसी तरह दूसरों की देखादेखी होड़ करते हुए बच्चों को अच्छे और मँहगे स्कूलों में शिक्षा दिलाना, मोटी रकम देकर ट्यूशन के लिए भेजना भी एक फैशन-सा बनता जा रहा है।
इन सब चक्करों में अधिक और अधिक कमाने की जिद उसके दिलो-दिमाग पर हावी होती जा रही है। इसलिए भी उसे अपनी सामर्थ्य से अधिक धन जुटाने के लिए हाड़तोड़ श्रम करना पड़ता है।
यह अनथक परिश्रम उसके लिए बिमारियों की सौगात लेकर आ रहा है। ये बिमारियाँ मनुष्य के शरीर को अपना घर बनाती जा रही हैँ। वे हैं- बी पी, शूगर, हार्ट अटैक, कलस्ट्रोल, मोटापे आदि की समस्याएँ। तब न चाहते हुए भी डाक्टरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं।
फिर यहाँ भी स्टेटस आड़े आ जाता है। इलाज भी मँहगे अस्पतालों में करवाना होता है जहाँ जाकर उसे बहुत-सा धन और समय को व्यय करना पड़ता है।
इन सब परिस्थितियों के कारण मनुष्य को मानसिक तनाव झेलना पड़ता है। वह दवा की गोलियाँ खाता रहता है और अपना काम करता रहता है। इसका एक ही कारण है कि उसके पास सिर खुजाने के लिए भी बिल्कुल समय नहीं है।
जिस शरीर की बदौलत मनुष्य सारे क्रिया-कलाप करता है, उसी के प्रति बहुत अधिक लापरवाही बरतता रहता है। जिन्दगी की भागमभाग में वह भूल जाता है कि यदि एक बार इस शरीर ने साथ देने से इन्कार कर दिया तो सारे कामकाज धरे रह जाएँगे।
मनुष्य को चाहिए कि वह थोड़ा-सा समय अपने और अपने परिवार के लिए निकाले। ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह घर से जाए तो बच्चे सो रहे हों और जब रात को वापिस लौटे तो भी बच्चे सो गए हों। ऐसी स्थिति में वह घर न रहकर एक सराय बन जाता है जहाँ आकर रात बिताई और सवेरे उठते ही अगली यात्रा के लिए तैयार हो गए।
वीक एंड में परिवार को समय देना चाहिए जो बच्चों के समुचित विकास के लिए आवश्यक है। कभी-कभी उनके साथ मनचाहे स्थानों की यात्रा के लिए भी जाना चाहिए। केवल पैसा कमाने की मशीन बनने से बचना चाहिए।
हो सके तो मानसिक तनाव कम करने के लिए ध्यान लगाएँ, प्राणायाम करें, योगासन करें। ईश्वर की उपासना करनी चाहिए, इससे आत्मिक बल बढ़ता है। बच्चों के साथ गपशप लगाते हुए समय व्यतीत करें। इससे बच्चे भी खुश रहते हैं और अपना मन भी प्रसन्न रहता है। इन्सान सारी कटुताओं से परे रहकर तरोताजा हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp