मनुष्य अपना जीवन तभी निश्चिन्त होकर व्यतीत कर सकता है जब वह अपने सिर पर लादी हुई दुश्वारियों की गठरी उतारकर फैंक देता है। अपने मनोमस्तिष्क पर उन्हें हावी नहीं होने देना चाहिए। इस सत्य से कोई मुँह नहीं मोड़ सकता कि जीवनकाल में दुख-परेशानियाँ भी आएँगी और सुख-समृद्धि भी आएगी। इन सबके चलते जीवन को हारना नहीं है अपितु जिजीविषा बनाए रखनी चाहिए।
मनुष्य को आयुपर्यन्त जिम्मेवारियों का बोझ उठाना पड़ता है। यदि वह उन्हें भार समझ लेता है तो हर समय परेशान होता रहता है, अपनों और अपनी स्वयं की जिन्दगी से शिकायत करता रहता हैँ। वह सदा ईश्वर को भी उलाहने देता रहता है। उसके इस प्रकार करने से उसके साथ-साथ उसके बन्धु-बान्धव भी मायूस होने लगते हैं।
इसके विपरीत सकारात्मक रुख अपनाते हुए यदि मनुष्य अपने दायित्वों का निर्वहण करता है तो वह इन्हें प्रसन्न होकर निभाता है। तब वह न तो निराश होता है और न ही किसी को लानत-मलानत करता है। उसके ऐसे आचरण से घर-परिवार में सर्वत्र उत्साह का वातावरण बना रहता है। वह स्वयं भी आनन्दित रहता है और उसके बन्धु-बान्धव भी मस्त रहते हैं।
मनुष्य भार समझकर जो भी कार्य करता है, उसे उल्टा-सीधा करके बाद में दुखी होता है। वे मानो उसके गले में हड्डी बनकर फँस जाते हैं। वह उस बोझ को शीघ्र उतारकर फैंकना चाहता है। इसी भाव को मन में सोचते हुए किन्हीं महात्मा जी ने अपने पास आए लोगों से ऐसा एक प्रश्न पूछा - 'सबसे ज्यादा बोझ कौन-सा जीव उठाकर घूमता है?'
इस प्रश्न के उत्तर में किसी ने कहा गधा, किसी ने बैल और किसी ने ऊँट का नाम लिया। यानी सब लोगों ने अलग-अलग प्राणियों के नाम बताए। महात्मा जी किसी के भी उत्तर से सन्तुष्ट नहीं हुए।
उनके असन्तुष्ट होने का कारण है। क्योंकि गधे, बैल और ऊँट आदि पशुओं के ऊपर बोझ कुछ समय तक लादते हैँ और ले जाते हैं। उसके बाद उस बोझ को उतारकर रख दिया जाता है लेकिन मनुष्य अपने मन के ऊपर जबरदस्ती लादे हुए विचारों के बोझ को मरते दम तक भी नहीं उतार पाता। जिस दिन मनुष्य इस बोझ को उतारकर फैंक देगा, उसी दिन वह सही मायने में जीवन जीने की कला को सीख जाएगा। तब निराशा उसके जीवन से सदा के लिए छूमन्तर हो जाएगी।
मनुष्य अपने सीने पर न जाने कितने बोझ उठाकर रखता है। यदि किसी व्यक्ति ने उसके साथ अन्याय किया अथवा दुर्व्यवहार किया तो उसे भी याद रखने का बोझ उठाए फिरता है। भविष्य में क्या घटने वाला है, इसकी चिन्ता के कारण वह अनावश्यक बोझ से दबा रहता है। अपने किए गए पापों की गठरी का बोझ सिर पर उठाकर जन्म-जन्मान्तरों तक चलता है।
इस प्रकार बच्चों के लालन-पालन, योग्य बनाने और सैटल करने की चिन्ता में ही वह घुला जाता है। घर-परिवार, कार्यक्षेत्र, स्वास्थ्य आदि की चिन्ताओं के अनावश्यक बोझ को पीठ पर गठरी की तरह लादकर चलता है। इस प्रकार भाँति-भाँति के ये बोझ मनुष्य की पीठ झुका देते हैं। असहाय मनुष्य मूक द्रष्टा बना बस उन्हें निहारता रहता है।
वास्तव में इन सब परिस्थितियों का वह स्वयं जिम्मेदार है। यदि वह इन सबको बोझ न समझकर अपना दायित्व मान सके तो पीड़ा कम होती है अन्यथा बिमारियों को न्योता देना होता है। फिर सारा जीवन दवाइयाँ खाते हुए गुजार देता है। इस तरह अपना धन और समय नष्ट करता हुआ वह अनजाने ही अपने परिजनों के कष्ट का माध्यम बन जाता है।
सुधी मनीषी जन इसीलिए मनुष्य को बारम्बार समझाते हैँ कि अपने जीवन को जल की तरह शान्त बनाना चाहिए। उसमें अनावश्यक कंकर फैंककर उद्वेलित नहीं करना चाहिए। अपनी जिम्मेवारियों को बोझ न समझते हुए उन्हें सहर्ष निभाना चाहिए। इसी में मानव जीवन की सार्थकता कहलाती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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