मनुष्य यदि अपने अंतस में झाँककर देख सके और अपनी असीम शक्तियों को पहचानकर उनका भरपूर लाभ उठा सके तो अपने किसी भी सपने को पूरा करने से उसे कोई नहीं रोक सकता।
इसका कारण है कि मानव मन को ईश्वर ने असीम ऊर्जाकोष का उपहार दिया है। प्रत्येक मनुष्य में इतनी सामर्थ्य होती है कि वह जो भी चाहे हाथ बढ़ाकर पा सकता है। उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है, उसे बस प्रयत्न करना होता है। परन्तु दुःख इस बात का है कि उसे अपनी इन विशिष्ट शक्तियों पर विश्वास ही नहीं होता।
अपनी स्वयं की शक्तियों को ढूँढने के लिए मनुष्य को पर्वतों, गुफाओं, जंगलों, तीर्थ स्थानों में जाकर भटकने की कोई आवश्यकता नहीं होती। उसे तथाकथित गुरुओं और तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के पास जाकर माथा रगड़ने की भी जरूरत नहीं होती। फिर भी वह कस्तूरी मृग की तरह स्थान-स्थान पर भटकता हुआ वह इन शक्तियों को ढूँढता फिरता है।
ये सारी शक्तियाँ उसे आपने भीतर ही मिल सकती हैं। एकान्त में बैठकर, मनन करते हुए उसे अपने अन्तस में ही तलाश करनी चाहिए। तभी वह अपनी शक्तियों को पहचान सकता है और उन्हें और अधिक निखार सकता है।
एक बोधकथा कहीं पढ़ी थी कि किसी समय देवताओं में परस्पर विवाद हुआ कि मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली गुप्त चमत्कारी शक्तियों को कहाँ छुपाया जाए। सभी देवता इस पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे थे। एक देवता ने सुझाव दिया कि इन शक्तियों को जंगल की किसी एक गुफा में छिपाकर रख देते हैं।
दूसरे देवता ने उसका विरोध करते हुए कहा कि इन्हें पर्वत की चोटी पर छिपा देते हैं। उस देवता की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि अन्य तीसरे देवता ने कहा कि इन्हें समुद्र की गहराइयों में छिपाकर रख देते हैं। यह स्थान इसके लिए सबसे उपयुक्त रहेगा और मानव की पहुँच से दूर भी रहेगा।
इस प्रकार सबने अपना-अपना मत रखा। अन्त में एक बुद्धिमान देवता ने बड़ा अच्छा उपाय बताते हुए कहा कि मानव की चमत्कारिक शक्तियों को मानव-मन की गहराइयों में ही छिपा देते हैं। बचपन से ही मनुष्य का मन इधर-उधर दौड़ता रहता है। उसे कभी कल्पना भी नहीं होगी कि इतनी अदभुत और विलक्षण शक्तियाँ उसके अपने अंतस में छिपी हो सकती हैं।
मानव बाह्य जगत में इन शक्तियों को ढूँढता रहेगा, भटकता रहेगा पर अपने मन में झाँककर इन्हें नहीं देखेगा। इन बहुमूल्य शक्तियों को यदि उसके मन की निचली सतह में छिपा दिया जाए तो केवल वही उन्हें पा सकेगा जो वास्तव में अपने मन को साधेगा।
सभी देवताओं को यह विचार बहुत पसन्द आया और फिर मनुष्य के मन में ही इन चमत्कारी शक्तियों का भण्डार छिपा दिया गया। इसीलिए मानव के अपने मन में ही अद्भुत असीम शक्तियाँ निहित हैं जिन्हें उसे स्वयं ही खोजना होता है।
बिल्ली की तरह हथेलियों से आँखें बन्द कर लेने से केवल अंधकार ही दिखाई देता है। इसे दूर करने के लिए मनुष्य को अपने मन को साधना होता है जो असाध्य नहीं है।
जब तक मनुष्य अपने ही मन में विद्यमान अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, मोह, क्रोध आदि दुर्गुणों को दूर नहीं करता, तब तक उसका मन शुद्ध और पवित्र नहीं हो सकता। इस कारण उसका मन मन्दिर नहीं बन सकता। उसे न तो सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं और न ही वह ईश्वर की स्थापना वहाँ कर सकता है।
जितना वह अपनी शक्तियों को पहचानता जाता है, उतनी ही सरलता से अपनी आध्यात्मिक उन्नति करता जाता है। उस परमपिता परमात्मा के और अधिक करीब आ जाता है।
इस संसार में रहते हुए जीवन रूपी रथ को चलाने के लिए इस मन को साधकर, अपनी इन शक्तियों का सदुपयोग करते हुए मनुष्य इहलोक और परलोक सुधार सकता है। जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त होकर मालिक का प्रिय बन सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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