जीवन में प्रेम के विषय में जिज्ञासा की जाए तो मनुष्य के मन मन्दिर के द्वार स्वतः खुल जाते हैं। जिस व्यक्ति ने प्रेम को जान लिया वह आज नहीं कल अपने मन मन्दिर के द्वार पर दस्तक अवश्य देगा। जब प्रेम में अभूतपूर्व आनन्द मिलता है तो प्रार्थना में भी उतना ही रस मिलता है। प्रेम यदि बून्द है या बिन्दु है तो प्रार्थना मनुष्य के लिए सागर के समान होती है।
प्रेम को समझने के लिए न किसी धर्मशास्त्र की आवश्यकता होती है और न ही किसी गुरु धारण करने की आवश्यकता होती है। यह प्रेम ईश्वर का दिया हुआ एक ऐसा वरदान है जिसे वह सृष्टि के सभी जीवों को प्रदान करता है। इस प्रेम के बिना सृष्टि चल ही नहीं सकती। घर-गृहस्थी के मूल में इसकी अहं भूमिका होती है। बच्चे का लालन-पालन भी बिना प्रेम के नहीं हो सकता।
प्रेम से मनुष्य सृष्टि के सभी जीवों को अपने वश में कर सकता है। फिर चाहे वह सबसे खूँखार पशु शेर ही क्यों न हो। वह हाथी जैसा शक्तिशाली जीव भी हो सकता है। इसी प्रकार अन्य जीवों यानी घोड़ा, भैस, गाय, बैल, बकरी, गधा, हाथी, ऊँट, कुत्ता, बिल्ली, साँप आदि सभी जीवों से अपना मनचाहा कार्य करवा लेता है। उन्हें अपना पालतू बना लेता है।
वास्तव में प्रेम दो व्यक्तियों का ऐसा मिलन होता है जहाँ वे अपने अहंकार का त्याग कर देते हैं और मैं से हम बन जाते हैं। यह बात सदा ही स्मरण रखनी चाहिए कि प्रेम की कोई जाति अथवा धर्म नहीं होता। प्रेम गरीब, अमीर, सम्प्रदाय, ऊँच, नीच, काला, गोरा आदि सभी प्रकार के बन्धनों से परे होता है। देश व काल की कोई सीमा इसके मार्ग में बाधक नहीं बन सकती। यह देशातीत व कालातीत होता है।
ऐसे प्रेम प्रसंगों से इतिहास भरा पड़ा है जहाँ कोई भी बन्धन इसके लिए पैरों की बेड़ियाँ नहीं बन सका। लाख पहरे बिठा दिए जाने पर भी परवान चढ़ने वाले इस प्रेम को बाँधकर नहीं रखा जा सका। चाहे सारा समाज ही क्यों न शत्रु बन जाए अथवा हुक्का पानी तक बन्द कर दिया जाए, फिर भी इसके ज्वार को रोका नहीं जा सकता।
प्रेम जीवन को प्रशिक्षित करता है और उसे सहिष्णु बनाता है। इसके लिए मनुष्य कुछ भी कर गुजरता है। कुछ लोग प्रेम नहीं करते अपितु हजार उपाय कर लेते हैं। अपने बचाव के लिए लोग स्वार्थवश प्रेम का त्याग करते जा रहे हैं। प्रेम को छोड़कर धन, कुल, पद, प्रतिष्ठा आदि सभी बातों का विचार किया जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि प्रेम ऐसा भयानक सूत्र है जो इस मानव जीवन का सारा ही अर्थशास्त्र बिगाड़कर रख देता है।
मीराबाई अलौकिक प्रेम का सबसे बड़ा उदाहरण हैं। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में अनेक कष्टों का सामना किया। उन्हें विषपान तक करना पड़ा। फिर भी उनका प्रेम घटने के बजाए दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही चला गया। कोई बन्धन उनके इस प्रेम को रोक नहीं सका।
जीवन में भौतिक वस्तुओं से प्रेम करने के स्थान पर मनुष्य जब परमात्मा से प्रेम करने लगता है तब उसे किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता नहीं रह जाती। धीरे-धीरे प्रेम की यह प्रगाढ़ता ही प्रार्थना का रूप ले लेती है। इसके सहारे से मनुष्य ईश्वर को जानने और समझने लग सकता है और फिर उसके रस में डूबकर अलौकिक आनन्द प्राप्त कर सकता है।
जिसने ईश्वर से अपनी लौ लगा ली, उसके लिए दुनिया में कुछ भी जानना शेष नहीं बचता। वह जन्म और मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। फिर जीव चौरासी लाख योनियों के फेर से भी मुक्त होकर मानव जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। तब जीव परम आनन्द का रसास्वादन करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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