विश्व के प्रायः सभी धर्मग्रन्थों में यद्यपि अनेक तरह की विसंगतियाँ दिखाई देती है परन्तु स्त्रियों को नियन्त्रित करने के लिये, उन्हें खूँटे से बाँधकर रखने के लिए सभी एकमत हो जाते हैं। जिस स्त्री के साथ सारा जीवन व्यतीत करने के लिए वह कसमें खाता है, उसके आगे-पीछे घूमता है, उस स्त्री के लिये मुँह ढंकने, पिता या भाई के साथ ही घर के बाहर निकलने अथवा ऊँची आवाज में न बोलने और सहनशीलता बरतने जैसी बातें कहीं जाती हैं।
प्रायः सभी धर्मों में विशेष रूप से इस विषय पर कुछ-न-कुछ लिखा ही गया है। वह इसीलिए कि शायद अधिकतर धार्मिक पुस्तकों के रचयिता पुरुष हैं। इससे भी बढ़कर यह सत्य दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वर्ग और नरक की परिकल्पना करते हुए भी वे अपसराओं अथवा हूरों के मोह से बच नहीं सके, इसलिए वहाँ भी उन्हें उनका ही ध्यान रहा।
शायद स्त्री को मात्र भोग्या मानने के कारण ही मरने के उपरान्त स्वर्ग में इनकी चाहत से वे लोग मुक्त नहीं हो पाए। अथवा स्त्री के बिना पुरुष अकेला रह नहीं सकता, वह अधूरा हो जाता है। यह बात उससे सहन नहीं हो सकती।
सारी आयु ईमानदारी से पूजा और अर्चना करके अथवा कठोर तपस्या करके भी स्त्री की कामना से वे मुक्त नहीं हो सके। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जन्म-मरण अथवा चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष की कामना करना शायद उनके लिए कोई मायने नहीं रखता। वे तो बस स्वर्ग के अन्य भोगों के साथ रमण का सुख भोगकर महान बनेंगे।
भर्तृहरि के अनुसार तो स्त्रियों पर सामाजिक नियन्त्रण की बात करना व्यर्थ है। इसी भाव को दर्शाता हुआ 'नीतिशतकम्' का यह श्लोक द्रष्टव्य है-
स्वपरप्रतारकोऽसौ निन्दति योऽलीपण्डितो युवतीः।
यस्मात्तपसोऽपि फलं स्वर्गस्तस्यापि फलं तथाप्सरसः॥
अर्थात शास्त्रों का अध्ययन करने वाले कुछ अल्पज्ञानी विद्वान व्यर्थ ही स्त्रियों की निन्दा करते हुए लोगों को धोखा देते हैं। तपस्या तथा साधना के फलस्वरूप जिस स्वर्ग की प्राप्ति होती है उसमें भी तो अप्सराओं के साथ रमण करने का सुख मिलने की बात कही जाती है।
सचमुच यह शोध का विषय है कि आखिर सारे ही धर्म स्त्रियों पर नियन्त्रण रखने की बात क्यों करते हैं? वे सदा पुरुष को एक देवता मानकर ही क्यों प्रस्तुत करते हैं?
दूसरी ओर स्त्री को नरक का द्वार बताकर वे सदा उसे तिरस्कृत करते है। दूसरी ओर स्त्री की देवी के रूप में पूजा करते हैं। उसी के सहयोग से तन्त्र-मन्त्र सब सिद्ध करते हैँ और उसे ही धार्मिक स्थलों पर जाने से प्रतिबन्धित करते हैं। आज के वैज्ञानिक युग में घर से बाहर नही निकलने देना चाहते। उस पर मनमाने अत्याचार करते रहते हैं।
यहाँ एक बात जोड़ना चाहती हूँ कि यदि पुरुष देवता नहीं है, उच्छ्रँखल है, भँवरा है तो उसे नारी से भी देवी होने की आशा नहीं रखनी चाहिए। संस्कारों, परिस्थतियों एवं व्यक्तिगत बाध्यताओं के चलते हर मनुष्य का अपना व्यवहार करने का एक तरीका होता है।
यह इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति विशेष को प्रेरणा किस प्रकार की अथवा किस माध्यम से मिली है? यदि उसका प्रेरणास्त्रोत बुराई की ओर ले जाने वाला है तो वह गलत कार्य ही करेगा और अगर प्रेरणास्त्रोत अच्छा है तो वह शुभ कार्य ही करेगा। हर पुरुष और स्त्री का व्यवहार कैसा हो, इसे सुनिश्चित करने में उसकी आयु का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है। उन सबका बचपन अल्लहड़पन में व्यतीत हो जाता है।
उसके उपरान्त युवावस्था में चाहे स्त्री हो या पुरुष दोनों का मन दुनिया को देखने, समझने और परखने के लिये लालायित होता है। इसी कारण विपरीत लिंग का आकर्षण उन्हें लुभाता है। उस समय वे सारे बन्धनों को तोड़ देना चाहते हैं। इस अवस्था में उन पर नियंत्रण की बात करने वाले या तो बूढ़े हो चुके होते हैं या उनका जीवन असाध्य कष्टों के बीच गुजरा होता है। ऐसा लगता है कि युवतियों की युवावस्था अनेक धर्म लेखकों और विद्वानों के बहुत बुरी लगती है। इसलिए वे अतार्किक और अव्यवाहारिक बातें लिखते रहते हैं।
यद्यपि युवावस्था में स्त्री हो या पुरुष स्वाभाविक रूप से सभी अनियन्त्रित होने का प्रयास करते हैं। इस पर केवल युवतियों पर नियन्त्रण करने की चर्चा करना हास्यास्पद लगता है।
सुसंस्कृत, सभ्य, कुलीन, शिक्षित तथा बुद्धिमान युवक और युवतियाँ स्वयं पर नियन्त्रण रखते हैं, अनुशासन में रहते हैं। इसीलिए समाज में अभी तक नैतिकता बची हुई है। उन्हें धार्मिक शिक्षा न भी दी जाए तब भी वे मर्यादा में रहते हैं परन्तु जिन युवाओं ने भटकना है उन्हें रोकने के सारे प्रयास असफल रह जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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