रचनाकार वही सफल होता है जो समाज को दिशा देने का अपना दायित्व पूर्णरूपेण निभाता है। यद्यपि लेखन स्वान्त: सुखाय होता है तथापि उसमें रचनाकार का श्रम परिलक्षित होना चाहिए। यह तभी सम्भव हो सकता है जब वह कुछ जानना और समझना चाहे अन्यथा उसका किया हुआ सृजन स्तरीय नहीं हो सकता।
साहित्य सृजन के लिए सबसे पहले साधना करने की आवश्यक होती है। यहाँ साधना करने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह आलती-पालती लगाकर, धूनी रमाकर बैठ जाए और पूजा-अर्चना करने लगे। माला हाथ में लेकर ईश्वर के नाम का जाप करने लगे।
आज के नवोदित रचनाकार में इतनी भी सहनशीलता नहीं है कि वह अपनी सांस्कृतिक विरासतयुक्त पूर्ववर्ती महान कृतियों का अध्ययन करें। भाषा पर जो एक मजबूत पकड़ होनी चाहिए, वह उनकी कृतियों में नहीं दिखाई देती। वर्तनी की शुद्धता बहुत आवश्यक होती है परन्तु आज के नवोदित रचनाकारों में उसका अभाव खटकता है। वे अशुद्ध उच्चारण करते हैं और अशुद्ध लिखते हैं। उनकी यह कमी बहुत अखरती है।
रचनाकार को सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि नवसृजन करना कोई बच्चों का खेल नहीं। उसका प्रयास यही होना चाहिए कि इस कार्य में होने वाली कठिनाइयाँ उसके पात्रों के माध्यम से ही समाज के समक्ष रखी जाएँ। रचना का लेखन करने से पूर्व वह अपने पात्रों के साथ रच बस जाए। सोते-जागते, घूमते-फिरते, घर-बाहर सर्वत्र उसके पात्र उसके अपने व्यक्तित्व का एक हिस्सा बनकर उसके साथ एकाकार हो जाएँ।
कोई भी रचनाकार अपनी रचना के साथ तभी न्याय कर सकता है जब वह अपनी रचनाधर्मिता का निर्वहण ईमानदारी और सच्चाई के साथ करे। हम कह सकते हैं कि वही रचना पाठकों के मन को गहराई से छू सकती है जिसकी बुनावट वह पात्र, समय और स्थितियों के अनुकूल करता है। रचना की सार्थकता तभी हो सकती है जब लेखक महत्वाकाँक्षी न हो। आजकल के नवोदित रचनाकार अपनी पुस्तक को प्रकाशित करवाने के लिए इतने उतावले रहते हैं चाहे उनके पास पुस्तक के लायक सामग्री हो या न हो।
इसलिए जुगाड़ वाली नीति का आश्रय लेते हुए ये नये लेखक इन दिनों पत्र-पत्रिकाओं में खूब छप भी रहे हैं और तथाकथित सम्मान भी बटोर रहे हैं। बहुत से ऐसे लेखक मिल जाएँगे जिनकी बहुत ही कठिनाई से एक पुस्तक प्रकाशित हुई है और उनके पास सम्मान पत्रों का अम्बार लगा हुआ है।
यहाँ एक विशेष बात जोड़ना चाहती हूँ कि अभी भाषा का ककहरा भी जिन कवियों को शायद याद नहीं होगा और वे अपने नाम के साथ स्वघोषित कवि, महाकवि और राष्ट्रकवि जैसी उपाधियाँ लिखने लगे हैं। इनमें से बहुतों को यह भी ज्ञात नहीं कि कविता का सम्पादन नहीं किया जा सकता। उसमेँ मात्र वर्तनी दोष को सुधारा जा सकता है। दूसरी भाषाओं की रचनाओं का अनुवाद करना अपने आप में एक अलग विधा है, जिसकी चर्चा यहाँ नहीं की जा रही।
यही कारण है कि बहुत समय से कोई भी रचना ‘मील का पत्थर’ सिद्ध नहीं हो सकी, यानी 'कालजयी रचना' नहीं बन पाई है। धैर्यहीनता और रातोंरात प्रख्यात हो जाने की ललक ने हिंदी भाषाई रचनाकारों को कई खेमों में बाँट दिया है। वहाँ अपनी-अपनी ढफली और अपना-अपना राग अलापा जा रहा है। जिन्हें चार पक्तियाँ भी शुद्ध नहीं लिखनी आती वे साहित्य के ठेकेदार बन रहे हैं।
'तुम मुझे सम्मानित करो और मैं तुम्हें' ऐसी स्वार्थपरता हिन्दी साहित्य का बंटाधार कर रही है। एवंविध वैयक्तिक महत्त्वाकाँक्षा के कारण अपना हितचिन्तन साहित्य के लिये यह कतई शुभ नहीं माना जा सकता।
सभी सुधी रचनाकारों से अनुरोध है कि साहित्य के प्रति संवेदनशीलता को बरतते हुए सकारात्मक रुख अपनाएँ। दूसरों की आलोचना करने अथवा टाँग खींचने की प्रवृत्ति से बचते हुए हिन्दी भाषा के मंच को कुश्ती का अखाड़ा न बनाएँ। अपनी रचनाधर्मिता का मनोयोग से निर्वहण करते हुए हिन्दी भाषा के उत्थान में अपना योगदान दें।
चन्द्र प्रभा सूद
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