देवों और दानवों दोनों की सृष्टि करने के उपरान्त जब ईश्वर ने मनुष्य की रचना की। तब उसने केवल देवों के गुण अथवा दानवों के अवगुण उसे नहीं दिए अपितु मनुष्य में देवों और दानवों दोनों के ही गुण-अवगुण दे दिए। अब यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर करत है कि वह देवों के गुण अपनाता या दानवों के अवगुण। वह किसका चयन करता है और किस मार्ग पर चलता है।
मनुष्य सदा के लिए देवों के गुण नहीं अपना सकता और न ही इसी तरह से दानवों की तरह बना सदा रह सकता है। इसलिए वह दोनों की प्रवृत्तियों को अपनी सुविधा के अनुसार अपनाता रहता है और त्यागता रहता है।
मनुष्य के गुण हैं दया, ममता, करुणा, सहृदयता, परोपकार आदि। ये गुण उसे देवों के करीब ले जाते हैं और दानवों से अलग करते हैं। वह यदि अपने मानवोचित गुणों का त्याग न करे तो वह देवतुल्य बन सकता है। उसकी कीर्ति बिना किसी प्रयास के स्वयं ही कस्तूरी की भाँति चारों दिशाओं में फैलने लगती है। समाज में उसके उदाहरण दिए जाते हैं। ऐसे ही लोग समाज को दिशा देने का कार्य करते हैं।
कभी-कभी वह दूसरों को दिखाने और प्रशंसा पाने के लिए देव तुल्य बनने का प्रदर्शन करता है। वह चाहता है लोग उसके दानधर्म और सत्कृत्यों की प्रशंसा करते रहें और उसे महान कहें। जहाँ उसे आर्थिक, धार्मिक अथवा सामाजिक लाभ लेने होते हैं, वहाँ पर वह तथावत दिखने का हर सम्भव प्रयास करता है। उसके लिए उसका स्वार्थ साधना ही सर्वोपरि होता है। इस कारण वह गधे को भी अपना बाप बना सकता है।
इसी स्वार्थ के कारण वह आसुरी वृत्तियों को भी अपनाने में बिल्कुल परहेज नहीं करता। वह जायज-नाजायज सभी तरीकों से धन कमाना चाहता है। साथ ही यह भी चाहता है कि उसके काले कारनामों की भनक भी उसके घर-परिवार या समाज में किसी को न लगे। यानी कि वह चाहता है कि दूसरों के समक्ष उसकी सफेदपोशी बनी रहे, उस पर कभी कोई धब्बा न लगने पाए।
कुछ लोग प्रत्यक्ष रूप से ही दानवों जैसे कार्य करते हैं। उनके हृदय में दया, ममता, करुणा आदि कुछ भी गुण नहीं होते हैं। वे दूसरों को नीचे गिराकर, उन्हें कष्ट देकर सुख का अनुभव करते हैं। अपने इस तरह के नकारात्मक व्यवहार के कारण उनको मानसिक सन्तुष्टि मिलती है। इन दुष्प्रवृत्ति वालों से सभी लोग किनारा करने में ही अपना हित समझते हैं।
सबसे मजे की बात यह है कि एक बार जो इन्सान इनके चंगुल में फंस जाता है उसे ये आसानी से नहीं छोड़ते। यदि वह इनके जाल से बाहर निकलना चाहता है तो उसे जीते जी नहीं छोड़ते बल्कि उसके प्राण हर लेते हैं। उन्हें इन सब कार्यों को करने में आनन्द की अनुभूति होती है। तभी समाज की दृष्टि में ये क्रूर कहे जाते हैँ।
इस प्रकृति के लोगों से सभी जन दूर रहना चाहते हैं। अपने मिथ्या अहंकार और दुष्कृत्यों के कारण धीरे-धीरे ये समाज से कट जाते हैं। वे घर-परिवार, देश और समाज के शत्रु बन जाते हैं। न्यायानुसार अपने अपराधों का दण्ड भुगतते हैं।
एक समय ऐसा आता है जब इन्हें अपनों के साथ की आवश्यकता होती है तब तक वे आगे बहुत दूर निकल गए होते हैं। अपनों को जो घाव इन्होंने दिए होते हैं उनकी भरपाई नहीं की जा सकती। तब उस समय उनका रोना, गिड़गिड़ाना अथवा पश्चाताप करना सब व्यर्थ हो जाता है।
हर मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र होता है परन्तु उसका फल भोगने में नहीं। उन सभी अशुभ कर्मों का फल भोगते समय बहुत कष्ट होता है। सभी बन्धु-बान्धवों के साथ-साथ अपनी परछाई तक साथ छोड़ देती है। बहुत ही कष्टप्रद होता है इनको भोगना।
मनुष्य को अपने विवेक के अनुसार दैवी अथवा आसुरी गुणों को अपनाना चाहिए। ध्यान यही रखना चाहिए कि फिर पश्चाताप करने की नौबत नहीं आनी चाहिए। ऐसे गुणों को अपनाना चाहिए जिससे संसार से विदा होते समय ईश्वर के सम्मुख नजरें झुकाने की आवश्यकता न पड़े बल्कि सिर उठाकर जा सकें।
चन्द्र प्रभा सूद
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