अपने जीवनकाल में हर मनुष्य को सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि द्वन्द्वों को सहन करना ही पड़ता है। ये सब चक्र के अरों की भाँति ऊपर-नीचे होती रहते हैं। इस क्रम को मनीषी 'चक्रनेमि क्रमेण' कहते हैं -
नीचैरुपरि गच्छति दशा चक्रनेमिक्रमेण।
अर्थात जैसे पहिए के अरे ऊपर नीचे घूमते रहते हैं उसी प्रकार मनुष्य के जीवन में सुख-दुख भी आते रहते हैं।
इसलिए मनुष्य को कभी भी घबराना नहीं चाहिए। अपने विवेक पर पूर्ण विश्वास रखते हुए, उनसे जूझते हुए अपनी विपरीत स्थितियों से बाहर निकलने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिए। जिन्हें हम भगवान मानते हैं, वे भी जब मनुष्यरूप में पृथ्वी पर आते हैं तो उन्हें इन द्वन्द्वों को सहन करना पड़ता है। यह सत्य है कोई भी जीव इस कालचक्र से बच नहीं सकता।
इसके लिए न तो उसकी मर्जी पूछी जाती है और न ही उसे सूचित किया जाता है। अचानक ही समक्ष आकर ये मनुष्य के जीवन में उथल-पुथल मचा देते हैं। उसकी हालत को बद से बदत्तर बना देते हैं। वह बस अपनी इस बेबसी पर कसमसाता रह जाता है और इससे बाहर निकलने के उपाय खोजता रहता है। अपने इस उद्देश्य में कभी वह सफल हो जाता है तो कभी असफल हो जाता है।
ऐसी स्थिति जब मनुष्य के जीवन में आती है तब उसके अपने सभी बन्धु-बान्धव उसका साथ छोड़कर उससे किनारा कर लेते हैं। कहा जाता है कि उस समय मनुष्य की अपनी परछाई भी उसका साथ नहीं निभाती। वह अलग-थलग पड़ जाता है अपने कष्ट के समय को व्यतीत करने के लिए। उसे सलाह देने या कोसने के लिए तो बहुत से लोग आ जाते हैं परन्तु उसका साथ निभाने अथवा सान्त्वना देने के लिए कोई आगे नहीं आता।
सूर्य अपने उदयकाल एवं अस्तकाल में एक ही स्थिति में रहता है अर्थात वह लाल रंग का होता है। सूर्य का उदाहरण देते हुए किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में हमें समझाते हुए कहा है-
उदये सविता रक्तो रक्तश्चास्तमये तथा।
सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥
अर्थात सूर्य उदय होते समय लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है। उसी प्रकार महापुरुष सुख और दुःख में एक समान रहते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सूर्य दोनों स्थितियों में एक समान रहता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी हर अवस्था के लिए तैयार रहना चाहिए और उस समय को धैर्यपूर्वक व्यतीत हो जाने देना चाहिए।
'महापुरुष' शब्द का प्रयोग इस श्लोक में इसलिए किया गया है। उनका अपना जीवन सन्तुलित और संयमी होता है। वे सुखद और दुखद किसी भी परिस्थिति में अपना आपा नहीं खोते और न ही विचलित होते हैं। वे सब स्थितियों को एक समान मानते हैं। अतः न हर्षित होते हैं और न ही व्यथित होते हैं। वास्तव में यह उनकी चरित्रगत विशेषता कहलाती है।
हर व्यक्ति को इन विपरीत स्थितियों के लिए स्वयं को सदा ही तैयार रखना चाहिए। अपनी धूप-छाँव के समय के लिए कुछ बचत भी कर लेनी चाहिए अन्यथा उसे दूसरों पर आश्रित होकर अपमान के घूँट पीने पड़ जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि किन्हीं लोगों को जीवन में सदा सुख मिलते हैं तो किन्हीं को सदा दुख मिलते हैं। ये सब मनुष्य को अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उसके जीवनकाल में आते हैं। जो लोग इन दुखों की भट्टी में तपकर कुन्दन की तरह निखर बाहर आते हैं, वही वास्तव में इस संसार में महापुरुष बन जाते हैं।
इनके विपरीत जो लोग कठिनाइयों से बचने के लिए घबराकर कुमार्गगामी हो जाते हैं वे समाज और न्याय के शत्रु बनकर सजा काटते हैं। वे लोग घर-परिवार व बन्धु-बान्धवों के लिए अपमान का कारण बनते है।
मनुष्य को हर कदम फूँक-फूँककर सावधानीपूर्वक रखना चाहिए। अपने कर्त्तव्यों पूरा करते रहना चाहिए। शुभ से और अधिक शुभ की ओर अग्रसर होना चाहिए। तभी उसका इहलोक और परलोक दोनों संवर जाते हैं अन्यथा मानवजीवन प्राप्त करके भी उसका उद्धार नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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