किसी भी वाक्य की सत्यता को कसौटी पर परखने के लिए हम शास्त्रों में प्रमाण खोजते हैं अथवा विद्वानों की शरण में जाते हैं। वही सत्य-असत्य का बोध कराकर सबका मार्गदर्शन करते हैं। वे मनुष्य के विवेक को पैना करके उसे सही और गलत की पहचान करने के लिए सक्षम बनाते हैं। तब वह अपने सशय से मुक्त होकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति में सफल होता है।
मनीषी यही समझाते हैं कि महापुरुष जिस मार्ग पर चलते हैं, वास्तव में वही मार्ग अनुकरणीय होता है -
'महाजनो येन गत: स पन्थ:'
उस मार्ग पर मनुष्य बिना विचारे आँख बन्द करके चल सकते हैं। उनका अनुसरण करके मनुष्य को अपने जीवन में न कभी प्रायश्चित नहीं करना पड़ता है और न कभी पीछे मुड़कर देखने की उसे आवश्यकता ही पड़ती है।
इसके विपरीत दुर्जनों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। उनकी कही गई हर बात को कसौटी पर परखना चाहिए। बिना सोचे उनका अनुसरण करने से मनुष्य को मुँह की खानी पड़ती है। अपनी हानि तो वह करता ही है, साथ ही जग हँसाई का दंश भी उसे झेलना पड़ता है। इसीलिए बड़े-बुजुर्ग कहते थे- 'बुरा रोने से चुप लगाना श्रेष्ठ होता है।'
सज्जनों और दुर्जनों में क्रियान्वयन का अन्तर होता है। अर्थात उनकी कथनी कुछ और होती है तथा करनी उसके सर्वथा विपरीत होती है। सज्जनों की कथनी सदा पत्थर की लकीर की तरह अमिट होती है। जबकि दुर्जनों के वचन पानी के बुलबुले के समान अस्तित्व रहित होते हैं। किसी कवि ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में इसी तथ्य को उकेरा है, जिसे आत्मसात करना आवश्यक हो जाता है -
असद्भि: शपथेनोक्तं जले लिखितमक्षरम्।
सद्भिस्तुलीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम्।।
अर्थात दुर्जन की ली हुई शपथ पानी के उपर लिखे हुए अक्षर जैसे क्षगभंगुर होती है। परन्तु सज्जन व्यक्ति का सहज रूप से बोला हुआ वाक्य शिला के उपर लिखे हुए अक्षर के समान होता है। यानी सदा रहने वाला होता है।
कहने का तात्पर्य यही है कि दुर्जन यदि कुछ भी कहता है तो उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। वह कितनी कसमें खा ले, चिकनी-चुपड़ी बातें कर ले, उस पर विश्वास कदापि नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य को धोखा ही मिलता है। इस श्लोक में एक उदाहरण दिया है कि जैसे पानी के ऊपर लकीर खींच दो तो वह उसी पल मिट जाती है। इसी प्रकार दुर्जनों के वचनों को भी मानना चाहिए।
इसके विपरीत सज्जनों का हर वाक्य ब्रह्मवाक्य ही कहलाता है। इसका कारण उनकी सच्चाई की गहराई होता है। इसी कारण कवि ने कहा है कि उनकी कथनी मानो पत्थर पर खुदे हुए शिलालेख की तरह ही अमिट होती है। उसे कोई चाहकर भी मिटा नहीं सकता। जब तक वह शिला रहती है तब तक उस पर लिखा लेख भी रहता है।
उनका अपना जीवन क्रियात्मक होता है। तभी उनकी कथनी और करनी अलग न होकर एक होते हैं। अतः उनका आचार-व्यवहार सामने वाले पर सदा ही अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है। उनके कुछ कहे बिना ही मनुष्य को अपने जीवन में बहुत कुछ मिल जाता है, जिसकी वह कामना करता है।
दुर्जनों का साथ सोने जैसे मनुष्य को ऐसा लोहा बना देता है, जिसका मूल्य दूसरों की दृष्टि में नगण्य होता है। उनके दुर्गुणों की अधिकता उन्हें सर्वत्र त्याज्य बनाती है। जितना उनसे दूर रहा जाए उतना ही मनुष्य के लिए सुख का कारक बनता है। अतः यत्नपूर्वक उनके साथ सम्बन्ध नहीं बनाने चाहिए और उनका बहिष्कार करना चाहिए।
सज्जनों का संसर्ग पारस पत्थर के समान होता है, जिसका स्पर्श मात्र लोहे को सोना बना देता है। ऐसे लोग यदि सौभाग्य से मिल जाएँ तो उनका दामन अपने जीवन के अन्तिम पल तक थामकर रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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