स्वर्ग और नरक की परिकल्पना हर धर्म में की गई है। परन्तु स्वर्ग या नरक कोई ऐसे विशेष स्थान नहीं है जहाँ मरकर मनुष्य जाता है। विद्वानों का मानना है कि उनकी चाहत करना वास्तव में अज्ञान का प्रमाण है। स्वर्ग और नरक दोनों इसी धरती पर हैं। इनसे हम सबका वास्ता पड़ता रहता है।
मनीषी समझाते हैं कि माता के चरणों में स्वर्ग है तथा जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से महान हैं। इसका सीधा-सा अर्थ यही है कि जिसने अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में अपनी माता की सेवा शुश्रुषा में कोई कमी नहीं छोड़ी, उसकी सारी सुख-सुविधाओं का ध्यान मन से रखा, उस व्यक्ति को सभी प्रकार के सुख और मानसिक सन्तोष मिलता है।
इसी प्रकार स्वर्ग से भी बढ़कर जीवन को आनन्द से परिपूर्ण करने वाली मातृभूमि के प्रति भी मनुष्य का सदैव वफादार रहना, उसके प्रति गद्दारी न करना, शत्रुओं से उसकी रक्षा करना आवश्यक है। जो भूमि अन्न, जल से हमारे तन और मन को पुष्ट करती है, सारी सुख-सुविधाएँ देती है, वह निश्चित ही स्वर्ग से महान है।
मनीषी कहते हैं कि जीवन में सुख-शान्ति हो, बच्चे संस्कारी और आज्ञाकारी हों, छोटे-बड़े सभी एक-दूसरे को यथोचित मान देने वाले हों, परिवारिक सामञ्जस्य बना हुआ हो तो वह घर स्वर्ग के समान खूबसूरत होता है। उसकी खूशबू दूर-दूर तक फैलती है। वहाँ आने वाला हर व्यक्ति उस घर की मधुर यादें संजोकर अपने साथ ले जाता है।
इसके विपरीत यदि जीवन में सुख-शान्ति न हो, बच्चे जिद्दी और मनमानी करने वाले हों, छोटे-बड़े सभी एक-दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हों, परिवार के सदस्यों में सामञ्जस्य का अभाव होता है तो वह घर नरक के समान होता है। उस घर का अपयश दूर-दूर तक फैलता है। वहाँ आने वालों का मन भी प्रसन्न नहीं हो पाता और वे दुखी मन से उस घर की कड़वी यादें लेकर जाते हैं।
'मनुस्मृति' में मनु महाराज का बताते हैं कि कौन से व्यक्ति स्वर्ग अथवा नरक के सुख या प्राप्त करते हैं। निम्न श्लोक में यही कथन है-
य: क्षिप्तो मर्षयत्यातै: तेन स्वर्गो महीयते।
यस्त्वैश्वर्यान्न क्षमते नरके तेन गच्छति॥
अर्थात पीड़ितों से आक्षेप प्राप्त करके जो सहन कर लेता है, वह स्वर्ग की महत्ता प्राप्त करता है। किन्तु जो ऐश्वर्य के कारण क्षमा नहीं करता, वह नरक में जाता है।
कहने का तात्पर्य यही है जो व्यक्ति सहनशील है, क्षमाशील है वही सुखी रह सकता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने धन-दौलत के कारण किसी को क्षमा नहीं करता है, अपने अहं के साथ जीता है, वह नरक की भट्टी में जलता रहता है।
सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि जो लोग विवेकी, सहृदय, ज्ञानी, सदाचारी, परोपकारी हैं, वही वास्तव में सुखी रहते हैं। उनके मन शान्त रहते हैं। उन्हें मृत्यु से भी भय नहीं होता। वे अपना जीवन अपने आदर्शों और सामाजिक नियमों के अनुसार व्यतीत करते हैं।
जो लोग अपने धन-दौलत के नशे में रहते हैं वे दूसरों को न तो मान देते हैं और न ही अपने समक्ष उन्हें कुछ समझते हैं। ऐसे अहंकारी, स्वार्थी, विवेकहीन, क्रोधी, निर्दयी व्यक्ति सर्वत्र परेशान रहते हैं। हर समय सबको शक की नजर से देखते हैं। इसलिए उन्हें चैन नहीं मिलता। ऐश्वर्य के सब साधन होते हुए भी मानसिक रूप से व्यथित रहते हैं। इस प्रकार न चाहते हुए वे अनजाने में ही नरक के समान दुख भोगते रहते हैं।
नारकिया और स्वर्गिक सुख भोगने का मूल मन्त्र है मानसिक शान्ति है। वह देश, धर्म, समाज और परिवार के नियमों का पालन करने से मिलती है। अन्यथा मनुष्य को नारकीय दुख भोगने पड़ते हैं। इसलिए जीवन को जीने की कला में प्रत्येक मनुष्य को दक्षता हासिल कर लेनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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