बहुत दिनों से इच्छा थी मृत्युभोज की कुप्रथा पर लिखने की। पाँच जनवरी की डी. पी. शर्मा जी की इस आशय पर लिखी पोस्ट पढ़ी जिसमें उन्होंने इसका पुरजोर बहिष्कार व विरोध करने का आग्रह किया था। इस कुप्रथा पर अपने विचार लिखने से मैं स्वयं को रोक नहीं पा रही। आशा है कि आप सभी सुधी लोग इस विषय पर मेरे विचारों से एकमत होंगे।
हिन्दू धर्म में जन्म के पूर्व गर्भाधान संस्कार से लेकर मृत्यु के पश्चात तक अन्त्येष्टि संस्कार तक सोलह संस्कारों का विधान किया गया है। वहाँ किसी सत्रहवें संस्कार का विधान नहीं है तो बारहवीं या तेरहवीं के इस मृत्युभोज संस्कार का कोई औचित्य नहीं बनता।
जिस परिवार में मृत्यु जैसी विपदा आई हो, उस संकट की घड़ी में उनके साथ मानवीयता के नाते तन, मन और धन से अवश्य सहयोग करना चाहिए। बारहवीं या तेरहवीं पर होने वाले इस मृतक भोज का बहिष्कार करना चाहिए।
महाभारत में एक घटना का जिक्र है कि जब कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध होने वाला था तब भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को युद्ध न करके सन्धि करने का आग्रह किया। दुर्योधन ने उनका आग्रह ठुकरा दिया। श्रीकृष्ण को कष्ट हुआ और वे वहाँ चल पड़े तो दुर्योधन ने उनसे भोजन करने का आग्रह किया। इस पर श्रीकृष्ण ने उससे कहा -
सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुन:।
अर्थात जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो और खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए।
यदि खिलाने वाले का मन प्रसन्न न हो तो उस स्थान पर कदापि भोजन नहीं करना चाहिए। जिस घर का प्रिय व्यक्ति उन्हें छोड़कर परलोक सिधार गया हो, वे उसके चले जाने के गम में व्यथित होते हैं। उनकी ऐसी स्थिति में वहाँ हलुवा, पूरी, खीर आदि पकवान खाकर शोक मनाना किसी ढोंग से कम नहीं है। इसका विरोध युवापीढ़ी को अवश्य करना चाहिए।
चौरासी लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव क्या उन पशु-पक्षी भी गया गुजरा है जो अपने किसी साथी के वियोग में उस दिन अपना भोज्य नहीं खाते और वह दूसरों की मृत्यु पर दावत उड़ाता है।
हमारे आदी ग्रन्थों वेदादि में इस मृत्युभोज का विधान नहीं है। तथाकथित विद्वानों ने अपनी स्वार्थपूर्ति के कारण जन साधारण को गुमराह करने का कार्य किया है। हमारे इस समाज का ईश्वर ही मालिक है। महाभारत के अनुशासन पर्व में लिखा है कि मृत्युभोज खाने वाले की ऊर्जा नष्ट हो जाती है।
इस कुरीति का बीभत्स रूप गाँवों में देखा जा सकता है। जहाँ भोले-भाले ग्रामीण इनके दबाव में आकर अपने घर, खेत, आभूषण गिरवी रखकर अथवा बेचकर पूरे गाँव को मृत्युभोज में दावत देते हैं। इसका दुष्परिणाम उन्हें आयुपर्यन्त भुगतना पड़ता है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती, स्वामी विवेकानन्द, पं. श्रीराम शर्मा जैसे महान मनीषियों ने मृत्युभोज का जोरदार ढंग से विरोध किया है।
शत्रुघ्न शर्मा ने फेसबुक पर यह पोस्ट किया कि वैष्णव समाज के सभी गणमान्य बन्धुओं की उपस्थिति में प्रान्तीय वैष्णव ब्रिगेड टोंक ने 28 फरवरी 2017 को हुए सम्मेलन में मृत्युभोज पर प्रतिबन्ध लगाकर एक ऐतिहासिक निर्णय किया। उनका मानना है कि मृत्युभोज जैसी कुरीति पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए। उन्होंने समाज के हित में एक बहुत अच्छा कदम उठाया है।
युवाओं को चाहिए कि समाज से इन कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फैंकने के लिए वे आगे आएँ। युवावर्ग का यह नैतिक दायित्व बनता है कि वह आगे आए और इस कुरीति के चंगुल से लोगों को बचाने का कार्य सम्हाले। यद्यपि पुरानी पीढ़ी का तथा पण्डतों का विरोध उन्हें झेलना पड़ेगा फिर भी सबकी भलाई के लिए उन्हें अपना साहस बनाए रखना है।
चन्द्र प्रभा सूद
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