जन्मदात्री माता मनुष्य के लिए सर्वस्व होती है। उसे इस संसार में लाने का महान कार्य वह करती है, इस कारण वही उसके लिए सबसे बड़ी देवता होती है। उसी की छत्रछाया में रहकर मनुष्य जीवन के साथ-साथ दुनिया की दौलत प्राप्त करने में समर्थ होता है।
शास्त्रों के अनुसार अपनी माता के अतिरिक्त उसकी चार और माताएँ कही गई हैं। नराभरणम् ग्रन्थ के अनुसार वे निम्नलिखित हैं-
गुरुपत्नी राजपत्नी ज्येष्ठ पत्नी तथैव च।
पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैते मातरस्मृता:।।
अर्थात गुरु पत्नी, राजपत्नी, बड़े भाई की पत्नी या भाभी, पत्नी की माता और अपनी माता- ये पाँच प्रकार की माताएँ हैं।
इस श्लोक के अनुसार अपनी सगी माता के अतिरिक्त अन्य चारों माताओं को भी मनुष्य को यथोचित मान और सम्मान देना चाहिए।
सबसे पहले माता गुरुपत्नी होती है। गुरु ज्ञान देने और आध्यात्मिक उन्नति करने के कारण देवता कहा जाता है। वह एक पिता के समान उसका ध्यान रखता है। पूर्वकाल की भाँति आजकल गुरुकुल प्रथा से शिक्षण कार्य नहीं होता। उस शिक्षण व्यवस्था में गुरु के लिए शिष्य पुत्रवत होता था, उसकी पत्नी यानी गुरुमाता उस पर मातृवत स्नेह रखती थी। वह मनुष्य के लिए आजन्म पूज्या होती थी।
देश के राजा की पत्नी यानी रानी को भी माता की तरह सम्मान दिया जाता है। देश की रानी राजा की भाँति अपनी प्रजा को अपनी सन्तान की तरह ही मानती थी। अपनी प्रजा की सुख-सुविधाओं का वह ध्यान रखती थी। इसलिए वह माता के समान मानी जाती थी।
घर में बड़े भाई की पत्नी या भाभी को माता के समान मानकर आदर दिया जाता है। छोटे भाई की पत्नी को बेटी के समान स्नेह दिया जाता है। ऐसी सुन्दर व्यवस्था हमारी भारतीय संस्कृति की ही देन है। इसके पीछे मनीषियों की यही सोच रही है कि यदि मनुष्य बड़ी भाभी को अपनी माता के समान समझेगा और छोटी भाभी को बेटी की तरह मानेगा तो उसके मन में दोनों के प्रति कभी कुविचार या वासना का भाव नहीं आ सकेगा। इस प्रकार के व्यवहार से घर सुव्यवस्थित ढंग से चलता रहेगा। वहाँ इस विषय को लेकर भाइयों में कभी झगड़े नहीं होंगे और न ही व्यभिचार फैल सकेगा
मुझे वाल्मीकि रामायण का वह प्रसंग याद आ रहा है जब रावण ने सीता जी का हरण किया था तब उन्होंने अपने आभूषण मार्ग की पहचान के लिए फैंक दिए थे। भगवान श्रीराम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को भगवती सीता के आभूषण दिखाकर उन्हें पहचानने के लिए कहा था। लक्ष्मण जी का उत्तर था-
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
नुपूरं त्वभिजानामि नित्य पादाभिवन्दनात्।।
अर्थात लक्ष्मण कहते हैं कि न ही मैं उनके बाजूबन्द आदि आभूषण पहचानता हूँ और न ही कुण्डल। प्रतिदिन चरण वन्दना करने के कारण उनके नुपूरों को पहचानता हूँ।
यह है भाभी को माँ समझने का श्रेष्ठ और आदर्श उदाहरण। हर व्यक्ति को अपने इस रिश्ते का मान रखना चाहिए।
चौथी प्रकार की माता पत्नी की माँ होती है। जिस युवती से विवाह का सम्बन्ध जोड़ा है, उसके परिवारी जनों को यथोचित सम्मान देना मनुष्य का नैतिक दायित्व होता है। इस नाते उसकी माता को अपनी माता के समान मानना चाहिए।
सामाजिक जीवन में सभी प्रकार के नियमों और मर्यादाओं का पालन मनुष्य को अपने मन की गहराइयों से करना चाहिए। उसमें मात्र प्रदर्शन का भाव कभी नहीं होना चाहिए। तभी सभ्य समाज सारी व्यवस्थाएँ बनी रहती हैं और जिन पर हर व्यक्ति गर्व का अनुभव करता है।
मनीषियों ने मनुष्य के लिए इन पाँच माताओं का वर्णन किया है। सभी का यथोचित सम्मान किया जाना चाहिए, तभी मनुष्य को यश मिलता है। अन्यथा उसे घर, परिवार और समाज में अपयश का भागीदार बनना पड़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp