मृगतृष्णा के पीछे मनुष्य आखिर कब तक भागता रहेगा। इस भटकन का कहीं कोई अन्त तो होना चाहिए न। सीमित समय के लिए मिले इस मानव जीवन को मनुष्य मानो रेस में भागते हुए बिता देता है। अपना सारा सुख-चैन गँवाकर भी यदि उसे शान्ति मिल जाए तब गनीमत समझो।
वह न्यायकारी परमात्मा किसी के साथ अन्याय नहीं करता। वह ईश्वर चींटी जैसे छोटे से जीव से लेकर हाथी जैसे बड़े, हर जीव के लिए रोटी का जुगाड़ करता है। मनुष्य को भी उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार बिन माँगे ही सब दे देता है। ज्ञानी जन सदा कहते हैं- 'जिसने यह जीवन दिया है, भोजन की व्यवस्था भी वही करेगा।'
जीवन चलाने के लिए आवश्यक साधनों को मनुष्य सरलता से जुटा सकता है। परन्तु जब महत्त्वाकाँक्षाएँ सिर उठाने लगती हैं, तब समस्याएँ मुस्कुराती हुई उसे मुँह चिढ़ाती रहती हैं। उस समय मनुष्य उन असीम इच्छाओं को पूरा करने के लिए कोल्हू का बैल बन जाता है। दिन-रात एक करता हुआ जी-तोड़ मेहनत करता है। इस पर भी आवश्यक नहीं है कि उसे सदा ही सफलता मिल जाएगी।
जिनके लिए वह ये सब यत्न करता है वे तो उसे अपनी इच्छा पूर्ति का एक साधन मात्र समझते हैं। जब तक उनकी जरूरतें वह पूरी करता रहेगा तब तक तो उसके बराबर उनका और कोई प्रिय नहीं होता है। सभी उसकी प्रशंसा करेंगे और मिन्नत-चिरौरी भी करेंगे।
इसके विपरीत जब वह दूसरों की आकाँक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाता तब उससे बुरा और कोई नहीं होता। सबसे अधिक उसका बुरा तब होता है जब उसे नालायक और कामचोर कहकर अपमानित किया जाता है। उसके नाम के आगे एक असफल या नाकामयाब व्यक्ति होने का ठप्पा लग जाता है। फिर वह कितनी भी कोशिश कर ले स्थितियों को सुधारने में वह सफल नहीं हो पाता।
एक के बाद एक भौतिक वस्तुओं को जुटाने की फिराक में भागता हुआ मनुष्य इतनी दूर निकल जाता है कि उसका सब कुछ छूटता चला जाता है। जब पीछे की ओर मुड़कर देखता है तब वह स्वयं को निपट अकेला पाता है। फिर चाहकर भी अपनों के बीच नहीं जा पाता।
यही वह समय होता है जब मनुष्य जीवन के उस मोड़ पर पहुँच जाता है, जहाँ उसे अपनों के सहारे की सबसे अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि जिन्दगी की लड़ाई लड़ते हुए वह अशक्त होने लगता है। उस वक्त उसे अपनों के सशक्त कन्धों की जरूरत स्वाभाविक रूप से होती है।
यही उसके सन्ताप का सबसे बड़ा कारण बन जाता है। उस समय वह बस कलपता है, अपना मन मसोसकर रह जाता है कि जिनके लिए सारा जीवन भागदौड़ की, अपना सुख-चैन खो दिया, इससे भी बढ़कर स्वयं को भी भूल गया, वही नजरें मिलाकर बात करने के लिए तैयार नहीं हैं। उससे कहीं दूर बेगानों की तरह हो गए हैं। उस स्थिति में भी इन्सान चेत जाए तब भी अच्छा है।
एकाकी बैठकर आत्मचिन्तन करने पर ही समझ आती है कि अपने इस जीवन में क्या खोया और क्या पाया? मनुष्य जब तक खोये-पाये का लेखा-जोखा सुलझाता है, तब तक इस संसार को अलविदा कहने का उसका समय आ जाता है।
मनुष्य को अपनी असीम इच्छाओं को कुछ हद तक सीमित करना चाहिए। अनावश्यक ऐष्णाओं के पीछे भागने से कोई हल नहीं निकलने वाला। जितने भोगों को एकत्र करते जाओ, उतना ही मानसिक सन्ताप बढ़ता जाता है। इसलिए मृगतृष्णा के इस मायाजाल से यथासम्भव बचते हुए अपने जीवन में सुखोपभोग करना चाहिए अन्यथा इसके चंगुल से बच निकलना असम्भव तो नहीं बहुत ही कठिन अवश्य हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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