जीवन एक पाठशाला है। जिसमें हम सभी विद्यार्थी हैं। इसके प्रधानाचार्य जगत पिता ईश्वर हैं और संसार के सभी जीव इसमें अध्यापक हैं। ये सभी निरन्तर हमें कुछ-न-कुछ सिखाते रहते हैं।
बच्चे सवेरे उठकर तैयार होकर अफने विद्यालय जाते हैं। वहाँ निश्चित समय तक पढ़ाई करके घर वापिस लौट आते हैं। वहाँ से मिले गृहकार्य को करना पड़ता है। यदि उसमें कोताही बरतें तो स्कूल में डाँट पड़ती है, सजा मिलती है और कभी-कभी पिटाई भी हो जाती है। उसके पश्चात अपने पढ़े हुए पाठ को बारबार याद करके उसकी परीक्षा देनी पड़ती है। उसमें उत्तीर्ण होने पर ही छात्र अगली कक्षा में जा सकता है।
उसी प्रकार प्रतिदिन प्रात: उठकर अपने दैनन्दिन कार्यों से निवृत्त होकर हमें भी अपने विद्यालय यानि अपने-अपने दायित्वों को निभाने के लिए तैयार होना होता है। उन्हें यदि सही ढंग से नहीं निभा पाएँगे तो सजा के रूप में ताने और उलाहने सुनने के लिए मिलते हैं। असफलता, कायरता अथवा भगोड़ेपन का सुन्दर-सा, चमकता हुआ मेडल मिलता है।
संसार के छोटे-से-छोटे जीव से भी हम चाहें तो कुछ सीख सकते हैं। जैसे चींटी से धैर्य व कर्त्तव्य निष्ठा, चातक से वर्षा की पहली बूँद पाने जैसी दृढ़ता, पतंगे की लौ से लगन, अपने समूह की रक्षा अथवा मिल-जुलकर रहना, बन्दरिया का सन्तान प्रेम, शेर से स्वावलम्बन, सूर्य-चन्द्र आदि सम्पूर्ण प्रकृति से नियम का पालन, वृक्षों से परोपकार, पर्वतों से दृढ़ता इत्यादि बहुत कुछ सीख सकते हैं।
व्यक्ति सीखने वाला होना चाहिए, यह सारी कायनात उसे नया-नया पाठ पढ़ाने के लिए तैयार बैठी है। सबसे बड़ा शिक्षक समय है जो हमारे कर्मो के अनुसार हमें कभी सुखों के हिंडोले में झूलता है और कभी दुखों के थपेड़ो से मर्माहत करता है।
दुनिया में आने के बाद से ही मनुष्य की ज्ञाननार्जन की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। जितना ज्ञान वह ग्रहण करता है, उसमें से उसकी परीक्षा ली जाती है। यदि वह उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तो बहुत अच्छा अन्यथा जिन्दगी का वही पाठ उसे पढ़ना पड़ता है। यह ऐसी परीक्षा नहीं होती कि जिसमें पाठ का रट्टा लगाया और उत्तर पुस्तिका में लिख दिया तो पास हो गए।
जीवन की इस परीक्षा में वही परखा जाता है कि जो पढ़ा है अथवा अपने जीवन में अनुभव से सीखा है। उसे आत्मसात् किया या नहीं अर्थात् उसका प्रेक्टिकल किया है या उस ज्ञान का मात्र प्रदर्शन ही किया जा रहा है।
इस परीक्षा के प्रश्नपत्र में अन्य प्रश्नों के अतिरिक्त दुखों और परेशानियों का प्रेक्टिकल करवाया जाता है। उसमें पास होना आवश्यक होता है। इसमें मनुष्य के गुण-अवगुण, उसका पुस्तकीय ज्ञान सब परखा जाता है। इसी विपत्ति रूपी अग्नि की कसौटी पर जो खरा उतरा वही वास्तव में तपकर कुन्दन बनता है। तात्पर्य यह है कि इस समय जो व्यक्ति अधीर होकर सही रास्ते का चुनाव करते हैं, ईश्वर शाबाशी के रूप में उनके मनोरथ पूर्ण करता है। उस समय उन्हें वह सब कई गुणा अधिक लौटा देता है जो उन्होंने खोया होता है।
जो लोग जीवन की इस परीक्षा में घबराकर अनुत्तीर्ण होने के डर से कुमार्ग की ओर चल पड़ते हैं, आयुपर्यन्त उनके लिए कदम-कदम पर काँटे बिछ जाते हैं। उनका सुख-चैन सब तिरोहित होने लगता है। वे हर समय एक अज्ञात भय के साए में रहते हैं।
इस परीक्षा में सफलतापूर्वक उत्तीर्ण होने के लिए जीवन की पाठशाला में मन लगाकर ध्यान से पढ़ना चाहिए। अपने दायित्वों का पूर्णरूपेण निर्वहण करते हुए देश, धर्म व समाज के नियमों का मन, वचन और कर्म से पालन करना चाहिए। यदि मनुष्य सन्मार्ग पर अडिग रहे तो किसी प्रकार की परीक्षा में वह बिना अपना धैर्य खोए पास होता चला जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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