एक स्त्री सारी आयु यही सोचती रहती है कि उसका अपना घर कौन-सा है। जिस घर में उसका जन्म होता है, वह तो बाबुल यानी पिता का घर होता है। वहाँ से युवती होते ही उसे पराए घर यानी पति के घर में शादी करके भेज दिया जाता है।
वह घर माता-पिता यानी सास-ससुर का होता है। उनके पश्चात पति का घर कहलाता है। फिर समयानुसार वह पुत्र का घर बन जाता है।
यही प्रश्न उसके सामने मुँह बाए खड़ा रहता है कि उसका अपना घर कौन-सा है?
दिन में वह अपने घर को लेकर तरह -तरह के स्वप्न संजोती रहती है। रात में नींद को मनाने में गुजार देती है। बच्चों का पालन-पोषण करते हुए, गृहस्थी का बोझ सम्हालते हुए वह अपनी सारी उम्र उस वह घर को सजाने-संवारने में व्यतीत देती है जिस घर में उसके नाम की तख्ती भी नहीं होती।
आजकल सरकार ने एक कानून बनाया है कि यदि घर को खरीदा जाए और उसमें स्त्री का नाम भी होगा तो उस घर की रजिस्ट्री कराने में रिबेट मिलेगी। इस लालच में अब उसका नाम भी घर खरीदते समय लिखा जाने लगा है। यह उसके लिए प्रसन्नता की बात है।
स्त्री के हर रूप यानी बेटी, पत्नी, बहू, माता से घर के सब लोगों की अपेक्षाएँ होती हैं जिनका कोई अन्त नहीं होता। जहाँ उससे चूक हो जाती है वहीं पर सब लोग उसमेँ बुराई निकालने लगते हैं। तब लोग उसकी सारी पिछली अच्छाइयों को भूल जाते हैं। असन्तुष्ट होकर उसकी टीका-टिप्पणी करने में देर नहीं लगते।
ऐसा कहा जाता है कि हर रिश्ते का अपना एक अर्थ होता है। हर अर्थ के पीछे एक तर्क होता है। अपने जीवनकाल में उसे सन्तुलन बनाकर रखना चाहिए। किसी से नफरत न करके सबके साथ सहृदयता और समानता का ही व्यवहार करना चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि किसी को शिकायत का मौका न दिया जाए।
स्त्री को जीवन में पीछे भी देखना चाहिए जहाँ से उसे अनुभव मिलेगा। यदि वह अपने जीवन में आगे की ओर देखेगी तो आशा की किरण दिखाई देगी। दाएँ-बाएँ देखने पर अपने उसे जीवन का यथार्थ सामने दिखाई दे जाएगा।
स्त्री को एक शख्स बनकर नहीं बल्कि एक विशेष शख्सियत बनकर जीना चाहिए। शख्स तो किसी एक दिन विदा हो जाता है। परन्तु उसकी शख्सियत हमेशा जिन्दा रहती है।
उसे हर समय कभी पति की, कभी बच्चों की, कभी घर-परिवार की चिन्ता में नहीं डूबे रहना चाहिए। सबके खान-पान, स्वास्थ्य की चिन्ता के साथ-साथ उसे घर को सुचारु रूप से चलाने की चिन्ता भी रहती है। उसे हर स्थिति का डटकर सामना करना चाहिए।
उसे इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि सुबह से शाम तक काम करके उसे उतनी थकावट नहीं हो सकती जितना क्रोध और चिन्ता करने से एक क्षण में हो जाती है।
उसे अपने जीवन को अपनी इच्छा के अनुरूप जीना चाहिए। जिस दिन वह ऐसा कर पाएगी यानी जिन्दगी को अपनी शर्तों से जी लेगी, वही दिन उसका अपना बन जाएगा। बाकी सारे दिन तो केलेंडर की तारीखें मात्र ही होती हैं।
उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि उसका असली मुकाबला केवल अपने स्वयं से है। यदि वह अपने आज को बीते कल से बेहतर पाती है तो यह उसकी अपनी जीत ही होगी।
उसके अपने नाम की पट्टी चाहे घर के बाहर नहीं लगी हो पर वही घर की धुरी होती है। उसके बिना घर-घर नहीं रहता, श्मशानवत हो जाता है। सब बिखर जाता है। कुछ अपवादों को छोड़कर बेशक वह सारा जीवन अपनी पहचान ढूँढती रहती है फिर भी वह घर-परिवार की अहं ईकाई है।
चन्द्र प्रभा सूद
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