हमारे माता-पिता परोपकारी महान वृक्ष की तरह होते हैं जो अपने बच्चों को अपना सर्वस्व सौंप देते हैं। जब बच्चे छोटे होते हैं तब उनके साथ उन्हें खेलना अच्छा लगता था। बच्चे उनके साथ रूठते हैं, जिद करते हैं और नई नई माँगे रखते हैं तो उन्हें पूरा करके वे गौरवान्वित होते हैं। वे भी उनकी सारी कामनाओँ को खुशी-खुशी पूरा करके सन्तुष्टी का अनुभव करते हैं।
जैसे-जैसे बच्चे बड़े होते जाते हैं तब योग्य बनकर अपना व्यवसाय अथवा नौकरी करने लगते हैं तब उनके पास अपने माता-पिता के लिए समय का अभाव होने लगता है। उस समय वे अपने माता-पिता से दूर होने लगते हैं। उनके पास तभी आते हैं जब किसी समस्या में घिर जाते हैं या किसी जरूरत के कारण कोई माँग लेकर आते हैं।
जिस तरह लोग पेड़ों के उपर चढ़ते हैं, मीठे फल खाते हैं, खेलते हैं और थक जाने पर उसकी छाया में बैठकर गर्मी की तपन से राहत पाकर वहीं छाया में सो जाते हैं। उसके मीठे फल खाकर उदर की पूर्ति करते हैं। इन पेड़ों के साथ हमारा एक अनोखा रिश्ता बन जाता है। पेड़ भी लोगों के न आने पर अकेले हो जाते हैं तो उदास हो जाते हैं, उन्हें याद करके रोते हैं।
लोग उन वृक्षों की लकड़ी को काटकर अपने घरों की खिड़कियाँ-दरवाजे बनाते हैं और फर्नीचर बनाते हैं। लकड़ी की खूबसूरत चीजों से घर की सजावट करते हैं। पेड़ का सर्वस्व हरण करके उसे ठूँठ बनाकर ही दम लेते हैं।
इसी प्रकार कई माता-पिता भी अपना सब कुछ बच्चों को देने के कारण पेड़ की तरह बंजर हो जाते हैं। यानी धनाभाव के कारण असहाय अवस्था में जीने के लिए विवश हो जाते हैं। वे निराश होकर अपने बच्चों की राह देखते रहते है जो पलटकर उनकी ओर देखते तक नही। फिर भी वे अपने बच्चों के लौटने उम्मीद नहीं छोड़ते।
सभी माता-पिता चाहते हैं कि बच्चे उनके पास आएँ और आकर उनसे लिपट जाएँ, उनके गले लग जाये। बचपन की तरह उनसे रूठे, जिद करे। सौभाग्य से यदि ऐसा अवसर उनके जीवन में आ जाए तो वृद्धावस्था में भी उनका जीवन फिर से अंकुरित हो जाता है। निस्सन्देह पुनः एक बार उनका जीवन खुशियों से लबालब भर जाता है।
एक दिन जब वे बच्चे स्वयं को वृद्ध हुआ देखते हैं तब उन्हें माता-पिता की याद आने लगती है। तब वे अपने माता-पिता की समस्याओं को अच्छे से समझने लगते हैं। जब उनके बच्चे उनके साथ भी वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं तो उन्हें पश्चाताप होता है। उस समय उनके कन्धों पर हाथ रखकर सान्त्वना देने वाले हाथ इस संसार से विदा ले चुके होते हैं। तब वे उनके चरणों में बैठकर क्षमा याचना करने का अधिकार खो चुके होते हैं।
उस समय बार-बार उनके मन में यह विचार आता है कि काश समय रहते हुए उन्होंने अपने वृद्ध माता-पिता की उन समस्याओं को समझ लिया होता। काश अब वे उनकी गोद में सिर रखकर सो पाते, उनके साथ जी भरके खेल सकते, उनसे रूठने और मानने का खेल खेल सकते। जिससे वे जी उठते और आनन्द से अपनी वृद्धावस्था का समय बिता पाते।
यह अहसास यदि बच्चों को अपने माता-पिता के जीवनकाल में आ जाए तो उन्हें दरबदर की ठोकरें न खानी पड़ें। उन्हें कभी दो जून की रोटी के लिए तरसना न पड़े। अपने शरीर से लाचार होकर दवा के लिए भटकना न पड़े। न ही उन्हें अपने परिवार के रहते ओल्ड होम की शरण लेने के लिए विवश होना पड़े।
सभी माता-पिता अपने बच्चों में श्रवण कुमार जैसे बुढ़ापे की लाठी बनने वाले गुण देखना चाहते हैं। पर इसके लिए उन्हें अपने बच्चों के समक्ष उदाहरण बनना होगा। तभी बच्चों में ऐसे गुण स्वभावत: आ जाते हैं। इसलिए सभी सुधी जनों को अपने जीवन में हर कदम सावधानी पूर्वक फूँक-फूँककर रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp