इन्सान हर समय कभी ईश्वर से और कभी उसकी बनाई हुई दुनिया से सदा शिकायत करता रहता है। वह तो मानो धन्यवाद करना ही भूल गया है। पता नहीं वह इतना नाशुकरा कैसे है?
मनुष्य हर समय किसी-न-किसी वस्तु की कामना करता रहता है। यदि वह उसे मिल जाती है तो यही कहता है यह उसके परिश्रम का फल है। उसके पूर्ण हो जाने पर फिर वह दूसरी कामना के पीछे भागने लगता है। उसके बाद भी कामनाओं का यह सिलसिला समाप्त नहीं हो जाता अथवा थमता नहीं है अपितु एक के बाद एक इच्छाएँ सिर उठाती रहती हैं। उसका सारा सुख-चैन उससे छीनकर उसे बेचैन बना देती हैं। उनके चक्रव्यूह में फंसा वह दिन-रात कोल्हू का बैल बना रहता है।
इसके विपरीत उसकी मनोकामना जब पूर्ण नहीं होती तब उसका दोषारोपण वह कभी अपने भाग्य पर करता है, कभी अपनी परिस्थितियों पर करता है और कभी दूसरे लोगों पर करता है। उस समय उसे ऐसा लगता है मानो सारी दुनिया ही उसके विरूद्ध हो गयी है। सारी कायनात उसे हराने के लिए लामबद्ध हो गई है। वह हर किसी पर झल्लाने लगता है चाहे वह उसका अपना हो या पराया। उसे हर उस व्यक्ति से वितृष्णा होने लगती है जो भी अपने जीवन में दिन-प्रतिदिन सफलताओं की सीढ़ियाँ चढ़ते जाते हैं।
उसका यह भटकाव आयुपर्यन्त बना रहता है। यह संसार असार है, इसमें रत्ती भर भी सन्देह नहीं है। जब तक यह मनुष्य नश्वर से अनश्वर, असत्य से सत्य की ओर तथा अंधकार से प्रकाश की ओर नहीं लौटता तब तक वह चौरासी लाख योनियों के आवागमन भटकता रहता है।
इस सबसे उसे शान्ति और मुक्ति तभी मिल पाती है जब वह इस संसार के बन्धनों को काटने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। वह उस प्रभु का स्मरण करता है, उसके ध्यान में मन लगाता है और अन्तत: उसका शरणागत हो जाता है।
ईश्वर की संगति का प्रभाव ही ऐसा है कि मनुष्य का अहं सदा के लिए दूर हो जाता है और स्वयं ही विनम्र बन जाता है। उसका सारा अभिमान काफूर हो जाता है। वह स्वयं को ईश्वर के पास जाने से रोक नहीं पाता। तब ईश्वर के साथ एकाकार होने के लिए वह व्याकुल होने लगता है।
उसके दर पर जाने से पहले मनुष्य हर दुख-तकलीफ में मायूस हो जाता है, रोता है, चीखता-चिल्लाता है, हाय-तौबा करता है। उसकी साधना करते हुए वह दुनिया से मिलने वाले थपेड़ों का बिना घबराए डटकर सामना करता है। उसके मन में यह प्रबल भाव आ जाता है कि वह अकेला नहीं है मालिक उसके साथ है, वह हर कदम पर उसकी रक्षा करेगा। वह हिचकोले खाती हुई अपनी जीवन की नौका उसके हवाले करके निश्चिंत हो जाता है।
मनुष्य जिस भी वस्तु की कामना करता है उसके न मिलने पर हताश और निराश हो जाता है। तब वह उस परम न्यायकारी परमात्मा पर पक्षपात करने का आरोप लगते हुए लानत-मलानत करता है। जब परमात्मा के साथ उसकी लगन लग जाती है तब वह हर बात में उसकी इच्छा को सर्वोपरि मानते हुए प्रसन्न रहता है। तब उसे कोई शिकायत नहीं रहती। वह समझ जाता है कि उसे अपने कर्मफल का भुगतान करना पड़ेगा तभी, उसकी मुक्ति सम्भव है।
प्रयास यही करना चाहिए शिकवा अथवा शिकायत करने के स्थान पर उस मालिक का धन्यवाद करना चाहिए। जो मनुष्य उस प्रभु की शरण में सच्चे मन से चला जाता है वह उसका शुकराना करना सीख जाता है।
ज्यों ज्यों मनुष्य उस परमेश्वर के साथ लौ लगा लेता है तब वह उसकी दी हुई सारी नेमतों के लिए उसका कोटिश: धन्यवाद करता है। इस ससार में रहने वाले उन सब लोगों के प्रति भी कृतज्ञता का ज्ञापन करता है जो उसके इस सफर में उसका साथ निभाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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