मनुष्य को धोखेबाजों या ठगों से हमेशा सावधानी बरतनी चाहिए। वे चाहे तथाकथित धर्मगुरु कहलवाने वाले हों या फिर समाज में भ्रमण करने वाले आम धूर्त जन। इन सबसे किनारा करना ही इन्सान के लिए श्रेयस्कर होता है अन्यथा बाद में जब हानि उठाने पड़ती है तब मनुष्य के पास पश्चाताप करने के अतिरिक्त कोई और चारा नही बचता।
कहने का तात्पर्य यही है कि कठोर तप करके ही गुरु-धर्मगुरु, ऋषि-महर्षि आदि की उपाधियाँ प्राप्त की जा सकती हैं। वास्तव में सच्चे सन्त इन उपाधियों के गुलाम नहीं होते। जितना वे इनसे दूर भागते हैं उतना ही यह उपाधियाँ उनके पीछे भागती हैं। वे अपने जीवन में ऐसे कर्म करते हैं जिससे लोग स्वयं उन्हें अपने सिर माथे पर बिठाते हैं तथा उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।
भारतीय संस्कृति कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म पर आधारित हैं। मनीषियों का कथन है कि मनुष्य को उसके अपने कर्मों के अनुसार ही यश-अपयश, लाभ-हानि, जय-पराजय, सुख-दुख आदि द्वन्द्वों को सहन करना पड़ता है। इसलिए उसे कभी अधीर नहीं होना चाहिए। उसे धैर्यपूर्वक उचित समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। जब विपरीत स्थितियों के बादल छँट जाते हैं तब सूर्य की तरह चमकती हुई खुशियाँ उसक जीवन में पुनः आ जाती है।
कबीर दास जी ने मनुष्य को उदास न होने के लिए कहा है-
कबीरा तेरी झोंपड़ी गलकटियन के पास।
जैसी करनी वैसी भरनी, तू क्यों भये उदास।।
कबीर का यह दोहा स्पष्ट निर्देश दे रहा है कि मनुष्य को उदास नहीं होना चाहिए। जो जैसा कार्य करेगा, उसे वैसा ही उसका फल भुगतना पड़ेगा।
कालेज के समय में एक कथा पढ़ी थी। ऋषि विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे। उस समय देवराज इन्द्र की अप्सरा मेनका ने उनकी तपस्या भंग कर दी थी। इस कारण अपने समय के साधु समाज की कटु आलोचना का शिकार उन्हें बनना पड़ा था। उन्होंने पुनः तपस्या आरम्भ की। ब्रह्मर्षि कहलाने के लिए उन्हें महर्षि वसिष्ठ की स्वीकृति की आवश्यकता थी। यानि जा तक वसिष्ठ जी उन्हें मान्यता नहीं देंगे तब तक उन्हें ब्रह्मर्षि का पद नहीं दिया जाएगा।
जब तक ऋषि विश्वामित्र इस पद के योग्य नहीं बन सके तब तक वसिष्ठ जी ने उन्हें ब्रह्मर्षि नहीं कहा। वर्षों की साधना के पश्चात वे अपने सदाचरण से जब वे इस पद के योग्य बन गए। तब महर्षि वसिष्ठ ने उन्हें ब्रह्मर्षि विश्वामित्र कहकर सम्बोधित किया।
साररूप में यही कहा जा सकता है कि जब तक विश्वामित्र के भाग्य में नहीं था तब तक वे कठोर तप करके भी मनचाहा फल नहीं प्राप्त कर सके। जब उनका भाग्य उदित हुआ तब उनकी सफलता की कमना पूर्ण हो सकी।
निस्सन्देह मनुष्य के पुरुषार्थ के साथ-साथ जब उसका भाग्य या प्रारब्ध प्रबल होता है तभी उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैँ। इसी तरह यदि उसका भाग्य बलवान हो और वह आलस्य के कारण परिश्रम न करना चाहे तो वह अपनी उन्नति के स्वर्णिम अवसर से चूक जाता है।
अतः अकेला भाग्य अथवा अकेला पुरुषार्थ मनुष्य को कभी सफलता के सोपान पर नहीं ले जा सकता। इन दोनों के संयोग होने पर ही मनुष्य का भाग्योदय होता है। यहाँ भगवान श्रीराम का उदाहरण ले सकते हैं जिनका अगली प्रातः राज्याभिषेक होना सुनिश्चित था परन्तु रात्रि में ही उन्हें चौदह वर्षों के लिए बनवास के लिए जाने का आदेश मिल गया और उन्होंने अपने अनुज लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ वन की ओर प्रस्थान किया।
कोई माने चाहे न माने परन्तु यह सत्य है कि यदि भाग्य बलवान हो तो गधे जैसा निरीह पशु भी पहलवान बन सकता है। अन्यथा बड़े-बड़े पहलवान भी पटखनी खा जाते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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