किसी को दान देना हो अथवा सहयोग करना हो तो अपना दायित्व समझकर करना चाहिए न कि किसी आशा या उम्मीद के कारण करना चाहिए। इसे सदा अपना नैतिक दायित्व समझना चाहिए, इसके लिए उसे अहंकार कदापि नहीं करना चाहिए। मनुष्य यदि अपने सच्चे मन से और कर्त्तव्य की भावना से जितना दूसरों को देने की प्रवृत्ति रखता है, उतना ही उसके मन में दाता होने का अहंकार समाप्त हो जाता है। धीरे-धीरे उसका हृदय शुद्ध और पवित्र हो जाता है।
इसका कारण है कि वह जानता है कि परमपिता परमात्मा ने इस संसार को बिना कोई अहसान जताए सब कुछ दिया है। यदि दूसरों के कष्ट से द्रवित हृदय मनुष्य किसी को सहायता स्वरूप कुछ भी देता है और प्रतिदान की आशा नहीं रखता तो यह उस व्यक्ति की महानता का परिचायक होता है। जो भी वह दान में दे सकता है, उसे माथे पर शिकन लाए बिना सहर्ष याचक को देना चाहिए।
एक बोधकथा कहीं पढ़ी थी, आप सबके साथ साझा कर रही हूँ। कहते हैं भगवान श्रीकृष्ण से अर्जुन ने पूछा- 'संसार में कर्ण को दानवीर क्यों कहा जाता है? जबकि दान हम लोग भी बहुत करते हैं।'
यह सुनकर श्रीकृष्ण ने दो पर्वतों को सोने में बदल दिया और अर्जुन से कहा- ‘इन दोनों पर्वतों का सारा सोना गाँव वालों में बाँट दो।'
अर्जुन गाँव में गए और कहा- 'आप लोग पर्वत के पास जमा हो जाइए क्योंकि मैं सोना बाँटने वाला हूँ।'
यह सुनकर गाँव वालों ने अर्जुन की जय जयकार करनी शुरू कर दी। अर्जुन छाती चौड़ी करके पर्वत की तरफ जाने लगे। दो दिन और दो रातों तक अर्जुन ने सोने के पर्वतों को खोदा और सोना गाँव वालों में बाँटा। पर्वत पर इसका कोई असर नहीं हुआ। इसी बीच बहुत से गाँव वाले फिर से कतार में खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करने लगे। अर्जुन अब थक चुके थे पर उनके मन में अहंकार का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था
उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा- 'मैं बहुत थक गया हूँ। अब मैं थोड़ा-सा आराम करना चाहता हूँ?'
तब श्रीकृष्ण ने कर्ण को बुलाया और कहा- 'सोने के इन दो पर्वतों को गाँव वालों को बाँट दो।'
कर्ण ने सारे ग्रामवासियों को बुलाया और कहा- 'ये दोनों सोने के पर्वत आप लोगों के लिए हैं। आप आकर सोना प्राप्त कर लें।'
एेसा कहकर कर्ण वहाँ से चले गए। अर्जुन भौंचक्के रहकर सोचने लगे कि यह ख्याल उनके दिमाग में क्यों नहीं आया। तब कृष्ण मुस्कुराये और अर्जुन से बोले- 'तुम्हें सोने से मोह हो गया था, तुम गाँव वालो को उतना ही सोना दे रहे थे जितना तुम्हें लगता था कि उन्हें देना चाहिए। दान में किसको कितना सोना देना है, यह तुम स्वयं तय कर रहे थे। लेकिन कर्ण ने इस तरह से नहीं सोचा और दान देने के बाद कर्ण वहाँ से दूर चले गए। वे नहीं चाहते थे कि कोई उनकी प्रशंसा करे।'
इस कथा को लिखने का उद्देश्य यही है कि दानदाता को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि पीठ पीछे कोई उसकी प्रशंसा करता है अथवा आलोचना करता है? यह आत्मज्ञानी जन की पहचान होती है। दान देने के बदले में दूसरों से प्रशंसा की कामना करना सौदा करने जैसा कहलाता है।
मनीषियों का कथन है कि दान देने की उपयोगिता तभी है जब एक हाथ से दिए हुए दान का दूसरे हाथ को पता न चल सके। यानी दान देना इतना गुप्त होना चाहिए कि मनुष्य के मन में यह विचार भी न आने पाए कि उसने दान में कुछ दिया है। उसे नेकी करके सदा के लिए दरिया में डाल देनी चाहिए। हालाँकि यह सब बहुत कठिन कार्य हैं, फिर भी प्रयास करके स्वयं को साधा जा सकता है।
सभी धार्मिक और सामाजिक संस्थाएँ दान से ही चलती हैं। अत: समाज में सभी व्यवथाएँ सुचारू रूप से चलती रहें, इसके लिए आवश्यक धन दान से ही जुटाया जाता है। जिस समाज से हम बहुत कुछ लेते हैं, उसके प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह करने के लिए हमें अपने खून-पसीने से कमाए गए धन का कुछ अंश प्रतिमास दान में अवश्य देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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