अपने खून-पसीने से कमाए धन में से कुछ अंश अवश्य ही दान देना चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि यथासंभव दान योग्य या सुपात्र को ही दिया जाए। स्वेच्छा से किये गये दान का पता नहीं चल पाता कि अपनी गाढ़ी कमाई से दिया गया दान सुपात्र को मिला या नहीं। यदि किसी कारणवश दान कुपात्र को दिया गया और वह उससे कोई कुकर्म करता है तो कुपात्र से अधिक दोष दानी को लगता है।
इसी बात को पुष्ट करती हुई यह घटना है। कहते हैं कि किसी समय एक राजा प्रतिदिन एक करोड़ गाय दान में देता था। परन्तु दुर्भाग्यवश उसके द्वारा दिए गए दान का दुरूपयोग दान लेने वाले ने किया। फलस्वरूप ऋषियों ने उसे श्राप दिया। जिसके फलस्वरूप उसे अगले जन्म में मनुष्य के स्थान पर गिरगिट की योनी मिली।
मनीषी कहते हैं कि मनुष्य के पास जो भी हो उसे ही दान में देना चाहिए। आवश्यक नहीं कि दान का पुण्य कमाने के लिए व्यक्ति दुष्कर्म करने लग जाए। लूट-खसोट, चोरी-डकैती, हेराफेरी, भ्रष्टाचार, रिश्तखोरी जैसे सामाजिक अपराध के मार्ग पर प्रवृत्त हो जाए। केवल ईमानदारी और सच्चाई से कमाए हुए धन का दान ही फलदायी होता है। ऐसी कमाई का धन जिसके पास जाता है उसे बरकत देता है, उसके बहुत से कार्य सँवरता है।
व्यक्ति के पास यदि प्रभूत धन नहीं होता तो वह इसी चिंता में घुलता रहता है कि दान न दे सकने के कारण उसका यह लोक तो बरबाद हो गया, परलोक भी बिगड़ जाएगा। इससे जीते जी उसका जीवन नरक तुल्य बन जाता है। इसी बात को ध्यान में रखकर एक गरीब आदमी गुरु नानक देव जी के पास गया और उसने उनसे प्रश्न किया - ‘मैं इतना गरीब क्यों हूँ?’
गुरु नानक देव जी ने उससे कहा - ‘तुम गरीब हो क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा।’
उनका उत्तर सुनकर उस आदमी ने कहा - ‘मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है।'
तब गुरु नानक देव जी ने उसे समझते हुए कहा - ‘तुम्हारा चेहरा एक मुस्कान दे सकता है। तुम्हारा मुँह किसी की प्रशंसा कर सकता है या दूसरों को सुकून पहुँचाने के लिए दो मीठे बोल बोल सकता है। तुम्हारे हाथ किसी ज़रूरतमंद की सहायता कर सकते है और तुम कहते हो तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नही। मनुष्य की आत्मा की गरीबी ही वास्तविक गरीबी होती है।’
धन्य हैं ऐसे महापुरुष और प्रेरक हैं उनकी कही गई बातें। महापुरुषों के उपदेशों का सदैव अनुकरण करना चाहिए। उनकी कही गई महान बातें मनुष्य के जीवन की दशा और दिशा बदल देते हैं।
इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि मनुष्य को अपने मन की शान्ति के लिए दान अवश्य करना चाहिए। सभी सामाजिक और धार्मिक कार्यों के सम्पादन हेतु धन की आवश्यकता होती है। जब तक सभी लोग सहयोग न करें तो कोई भी कार्य पूर्ण नहीं किया जा सकता। जैसे बूँद-बूँद से गागर भरती है, उसी प्रकार सभी के सम्मिलित प्रयास से यानी दान देने से ही सामाजिक और धार्मिक कार्यों का निष्पादन किया जाता है।
दान भार समझकर नहीं बल्कि अपना कर्तव्य मानकर करना चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि दान देते समय पक्षपात नहीं करना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी माननीय व्यक्ति के दबाव में आकर या किसी का चेहरा देखकर अपनी हैसियत से बढ़कर भी दान नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से मन में एक प्रकार का अपराधबोध होने लगता है और कई आवश्यक खर्चों में अनावश्यक कटौती करनी पड़ जाती है। इसका दुष्परिणाम दूरगामी होता है। अतः दान अपनी सामर्थ्य के अनुसार ही करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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