कृतज्ञता ज्ञापन करना अर्थात अपने प्रति किए गए किसी के उपकार के लिए उसका धन्यवाद करना चाहिए। यह मनुष्य का एक बहुत बड़ा गुण होता है। दूसरे के किए उपकार के लिए उसका अहसान मानने वाला व्यक्ति कृतज्ञ कहलाता है। इसके विपरीत दूसरे का अहसान न मानने वाला संसार में कृतघ्न या अहसान फरामोश कहलाता है।
प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवनकाल में बहुत से लोगों से वास्ता पड़ता है। उनसे उसका बराबर सहयोग का लेन-देन होता रहता है। उनके बिना एक कदम चलना भी उसके लिए कठिन हो जाता है। इसलिए उन सबका धन्यवाद करना चाहिए, इसमें कंजूसी नहीं करनी चाहिए। अन्यथा लोग उसे घमण्डी समझने लगते हैं।
एक समय ऐसा आता है जब ऐसे घमण्डी का लोग उसका तिरस्कार करने लगते हैं। फिर वह व्यक्ति अपने अहं के कारण निपट अकेला हो जाता है। तब उसे यह समझ आ जाता है कि अकेले हो जाने का अर्थ क्या होता है? समाज से कटकर यह एकाकीपन किसी प्रकार की सजा से कम नहीं होता।
भौतिक जीवन में अपने प्रति उपकार करने वालों को हम सभी धन्यवाद करते हैं। जिस परमेश्वर ने हमें जीवन में इतना सब दिया है, उसके प्रति कृतझता ज्ञापित करना भी बहुत आवश्यक होता है। परन्तु उसी का धन्यवाद करना हम सभी भूल जाते हैं। फिर भी वह हमें नहीं भूलता और बिनमाँगे समयानुसार हमारी झोलियाँ अपनी नेमतों से भरता रहता है। सबसे बड़ी बात यह है कि वह मालिक कभी हम पर अहसान नहीं जताता।
अपने जीवन में मनुष्य को सदा ही विनयशील होना चाहिए। जब कभी बड़े-बुजुर्गों के साथ बैठने का अवसर मिले तो उस परमेश्वर का धन्यवाद अवश्य करना चाहिए कि उसने ऐसा स्वर्णिम अवसर दिया। उनके साथ बैठकर, उनके अनुभवों से अपने ज्ञान में वृद्धि की जा सकती है। बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो इन अमूल्य पलों के लिए तरसते हैं ।
अपने कार्यक्षेत्र में जाते समय अथवा वापिस लौटते समय, सोते-जागते समय उस प्रभु का सदा ही धन्यवाद करना चाहिए जिसने जीवन को सुविधा पूर्वक चलाने की सामर्थ्य दी है। उन बहुत से लोगों के बारे में भी विचार करना चाहिए जो बेरोजगार हैं तथा अभी तक भी अपनी आजीविका के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
परमेश्वर का धन्यवाद मनुष्य को उस समय भी करना चाहिए जब वह स्वस्थ है। बिमारी में या दुःख में तो ईश्वर को पानी पी-पीकर कोसते हैं। बीमार व्यक्ति किसी भी मूल्य पर अपनी सेहत खरीदने की कामना करता है। इसलिए वह मँहगे-से-मँहगे अस्पतालों में अपना इलाज करवाता है।
जब तक मनुष्य जीवित है तब तक उसे परमेश्वर का धन्यवाद करते रहना चाहिए। मरता हुआ व्यक्ति कितना भी चाहे उसे किसी भी शर्त पर, एक पल की मोहलत ईश्वर की ओर से नहीं मिल सकती। वही जीवन का वास्तविक मूल्य बता सकता है, कोई अन्य नहीं।
मनुष्य दोस्तों को प्रसन्न करने के लिए, धन्यवाद करने के लिए कई मैसेज भेजता है अथवा कार्ड भेजता है। परन्तु उस मालिक को धन्यवाद करने के लिए कोई मैसेज नहीं भेजता। यदि इन्सान सच्चे मन से हर समय परमेश्वर का धन्यवाद कर ले तो उसके जीवन में बहुत कुछ बदल सकता है।
धन्यवाद देने का अर्थ यह होता है कि मनुष्य ने उपकार करने वाले का हृदय से सम्मान किया है। कृतज्ञता प्रदर्शित करने से मनुष्य के मन से अहंकार का भाव तिरोहित हो जाता है। वहाँ विनम्रता स्पष्ट दिखाई देती है।
सांसारिक बन्धु-बान्धवों को धन्यवाद देना मनुष्य के संस्कारों का द्योतक होता है। उनके साथ ही उसे उस परमपिता परमेश्वर का भी धन्यवाद करते रहना चाहिए। वह प्रभु कदम-कदम पर हम सबकी सहायता करता है और जीवन में वह सब कुछ देता है जिसकी हमें आवश्यकता होती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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