समर्पण चाहे इस संसार के इन्सानों के लिए हो या भौतिक कार्यों के प्रति हो अथवा परमपिता परमात्मा के लिए ही क्यों न हो, पूर्णरूपेण होना चाहिए अन्यथा उस समर्पण का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वह समर्पण बस एक प्रदर्शन मात्र ही बनकर रह जाता है। तब इसके कोई मायने नहीं होते।
पति-पत्नी में पूर्ण समर्पण होता है तो उनका गृहस्थ जीवन की कमियों के बावजूद भी सुखों से भरपूर हो जाता है। ऐसे घर में सभी सदस्य मिल-जुलकर रहते हैं। उनमें सौहार्द बना रहता है। ऐसा घर स्वर्ग से भी बढ़कर होता है, जिसकी खुशबू दूर-दूर तक फैलती है। आने-जाने वाले मेहमान भी इस घर में आकर सदा शीतलता का अनुभव करते हैं।
यदि पति-पत्नी दोनों में इसकी कमी होती है तो घर अखाड़ा बन जाता है और वहाँ कलह-क्लेश बना रहता है। उस घर में सदा अशान्ति का वातावरण रहता है। वहाँ रहने वाले सभी सदस्य सदा ही परेशान और दुखी रहते हैं। किसी को भी चैन नहीं मिल पाता। इसका दुष्परिणाम मासूम बच्चों को ही सबसे अधिक भुगतना पड़ता है।
माता-पिता का समर्पण बच्चों का जीवन संवारता है। उनका भविष्य बनाकर उनका सर्वांगीण विकास करता है। यदि माता, पिता और बच्चे सभी स्वार्थी बन जाएँ तो घर में 'तू तू मैं मैं' होती ही रहती है। वहाँ रहने वाले सभी सदस्य एक-दूसरे की टाँग खींचने में लगे रहते हैं जो सर्वथा अनुचित होता है।
उस घर के बच्चे जिद्दी, बिगडैल और मनमानी करने वाले बन जाते हैं। ऐसे घर की सुख-शान्ति छूमन्तर हो जाती है। घर की ऐसी स्थिति का कुप्रभाव घर के सदस्यों के साथ-साथ आने वाले अतिथियों पर भी पड़ता है। वे लोग भी ऐसे घर में आना पसन्द नहीं करते जहाँ हमेशा अशान्ति का वातवरण रहता है।
अपने कार्यक्षेत्र में मनुष्य अपने काम के प्रति समर्पित नहीं होगा तो उसकी कार्य क्षमता घट जाती है। वह कामचोरी करने के बहाने ढूँढता रहता है। तब वह व्यक्ति अपने सभी कार्यों की जिम्मेदारियाँ दूसरों पर डालकर स्वयं मस्त रहने का प्रयास करता है। ऐसे व्यक्ति का अपने कार्यक्षेत्र में सम्मान नहीं होता। सभी लोग उससे बचने की फिराक में लगे रहते हैं।
मित्रों में यदि समर्पण का भाव हो तो उनकी मित्रता लम्बे समय तक चल सकती है यानी आजीवन या मृत्यु पर्यन्त चलती है। मित्रता जाति-धर्म, ऊँच-नीच, अमीरी-गरीबी और देश-काल आदि सभी बन्धनों से परे होती है। ऐसी मित्रता भगवान श्रीकृष्ण और गरीब ब्राह्मण सुदामा की मित्रता की भाँति होती है, जिसका उदाहरण युगों-युगों तक दिया जाता है।
मित्रता यदि स्वार्थवश की जाती है तो वह बस सीमित समय के लिए होती है। जहाँ स्वार्थों की पूर्ति हुई वहीं वह दोस्ती समाप्त हो जाती है। कहने का तात्पर्य यही है कि उनकी मित्रता शार्ट टर्म के लिए होती है। जहाँ स्वार्थ पूर्ण हो जाते हैं, वहीं दोनों स्वार्थी दोस्त टा-टा, बाय-बाय करते हुए अपने-अपने रास्ते पर चले जाते हैं।
ईश्वर के प्रति यदि पूर्ण समर्पण और श्रद्धा हो तो उसे सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। प्रायः लोग ईश्वर की उपासना का प्रदर्शन करते हैं। इसीलिए वे लोग उस परमपिता परमात्मा से कोसों दूर रहते हैं। सच्चे मन से जब तक उस मालिक की उपासना की जाती है तभी मनुष्य उसका कृपापात्र बनता है। वह हर प्रकार से सुख, शान्ति व समृद्धि मिलती है।
यदि मनुष्य के मन में ईश्वर को पाने की तड़प हो तो तभी वह उसे पाकर कृतार्थ हो जाता है। उसका इहलोक और परलोक दोनों संवर जाते हैं। ऐसा ही श्रेष्ठ मनीषी वास्तव में इस संसार के चौरासी लाख योनियों और जन्म जन्मान्तरों के बन्धनों से मुक्त हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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