अपनी थाली में मनुष्य को उतना ही भोजन परोसना चाहिए जितना वह आराम से खा सकता है। यदि आवश्यकता से अधिक अन्न थाली में डाल लिया जाए तो मनुष्य उसे खाने में असमर्थ हो जाता है। अतः वह बच जाता है और फिर उस बचे हुए भोजन को कूड़ेदान में फैंक दिया जाता है। इस तरह यह अनमोल अन्न बरबाद होता रहता है।
अन्न का एक-एक दाना बहुत ही मूल्यवान होता है। उस एक दाने को जब बीज के रूप में किसान प्रयोग करता है तब वह उस बीज को बहुत-से अनाज में बदल लेता है। इस अन्न के हर दाने को उपजाने के लिए किसान दिन-रात अथक परिश्रम करता है।
किसान सरदी, गरमी, बरसात की परवाह नहीं करता। जीवन भर अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओलावृष्टि, बाढ़, भूकम्प, जैसी प्राकृतिक आपदाओं को भी सहन करता है। अपना सारा आराम छोड़कर, अपना खून-पसीना एक करके हम सबके लिए अनाज उपजाता है। बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि हमारा अन्नदाता किसान स्वयं भूखा रह लेता है परन्तु हम सबको पोषित करने का दायित्व बखूबी निभाता है। हम उसके इस परिश्रम का कभी मूल्य नहीं लगा सकते।
अन्न को बरबाद करके हम अन्न की बरबादी तो करते ही हैं और किसान के खून-पसीने के साथ ही उसके सपनों को भी चकनाचूर करते हैं। फिर भी वह धर्म नहीं त्यागता।
इस अन्न का मूल्य उन लोगों से अधिक कौन जान सकता है जिनके घरों में कई दिनों तक चूल्हा नहीं जलता। अपने आसपास हम बच्चों को कचरे से बीनकर खाते हुए देखते हैं। जिन स्थानों में दुर्भिक्ष (अकाल) पड़ता है या बाढ़, भूकम्प, तूफान आदि दैवी आपदाओं के कारण लोगों को घर से बेघर होकर विस्थापितों सा जीवन व्यतीत करना पड़ता है। दो जून रोटी कमाने के लिए मनुष्य कितने पापड़ बेलता है, स्याह-सफेद करता है। सभी पाप-दुराचार करता है। संस्कृत भाषा के एक कवि ने कहा है -
बुभुक्षित:किं न करोति पापम्।
अर्थात भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप है जो नहीं करता यानी वह क्या कुछ नहीं कर गुजरता?
इन्सान भगवान से यहाँ तक कह देता है-
भूखे भजन न होई गोपाला,
ले ले अपनी कण्ठी माला।
यदि मनुष्य गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के विषय मे सोच ले, कचरे से खाते और भूख से बिलबिलाते बच्चों के बारे में सोच ले तो कभी अन्न की बरबादी करने कआ साहस नहीं जुटा सकेगा।
यदि मनुष्य भोजन को ईश्वरीय प्रसाद के रूप में मान ले तो वह अनाज को इस तरह कभी बरबाद नहीं कर सकता। जब उसके मन में यह भाव आ जाएगा कि अन्न भगवान का प्रसाद है, तब वह अपनी थाली में उतना ही भोजन लेगा जितना वह खा सकेगा। इस तरह करने से अनाज व्यर्थ नहीं जाएगा। जिसकी बरबादी का कारण भोजन थाली भर-भरकर लेना हैं और न खा सकने की स्थिति में झूठा छोड़ देना है।
इसके विपरीत प्रसाद को लोग हाथ में लेकर खाते हैं और यदि गलती से वह कभी जमीन पर गिर जाए तो उसे उठाकर अपने माथे से लगाते हैं और फिर उसे खा लेते हैं। प्रसाद का एक भी दाना बरबाद नहीं कर सकते। इसे हम धर्मभीरूता भी कह सकते हैं।
यदि अन्न को प्रसाद मान लेने से उसे बरबादी से बचाया जा सकता है तो भी इसमें कोई बुराई नहीं है। हर हाल में अन्न का संरक्षण किया जाना चाहिए।
यह अहं कदापि नहीं करना चाहिए कि हमारे पास पैसा है तो हम मँहगा-सस्ता कैसा भी हो अनाज खरीद कर अपना पेट भर सकते हैं। अब यह अन्न हमारा है हम चाहे इसे खाएँ या बरबाद करें किसी को हमसे क्या लेनादेना?
यह प्रवृत्ति बहुत कष्टप्रद है। हम शादी-ब्याह या पार्टियों में अन्न को बरबाद होते हुए देखते हैं। मन को पीड़ा होती है। यही भोजन यदि किसी भूखे व्यक्ति को खाने के लिए दिया जाए तो उसका पेट भर जाए और उसके मन से कितनी ही दुआएँ निकलेंगी। बड़े ही जब इस ओर ध्यान नहीं देते तो बच्चों को वे अन्न को सुरक्षित रखने के लिए क्या समझाएँगे?
भारतीय सस्कृति में अन्न को ब्रह्म कहते हैं। अन्न का अनादर करना ईश्वर का अपमान करना माना जाता है। इसीलिए भोजन खाने के समय जब थाली में अन्न परोसा जाता है तो पहले हाथ जोड़कर प्रार्थना की जाती है।
उपनिषद का यह कथन है - ‘जो अन्न को नष्ट करता है, अन्न उसे नष्ट कर देता है।’ इसलिए अन्न को न सही स्वयं को बचाने के लिए ही अन्न का सम्मान कर लेना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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