मनुष्य की पहचान उसके अपने ही देश से होती है। उस देश की सांस्कृतिक विरासत उसका गौरव होती है। उसे अपने देश का नागरिक होने पर मान होना चाहिए। अपने देश में लाख कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े, उसे स्वप्न में भी छोड़ने का विचार नहीं करना चाहिए। जो सुख अपने बन्धु-बान्धवों के साथ मिलकर रहने में है, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता।
वह किसी भी दूसरे देश में अपनी आजीविका के कारण रहता हो, चाहे उस देश की नागरिकता भी उसने ले ली हो परन्तु पहचाना अपने मूल देश के निवासी के रूप में ही जाता है। वह कितनी ही पीढ़ियों से विदेश में रह रहा हो, फिर भी अपने मूल देश कि नाम उससे जुड़ा रहता है। उससे अलग वह नहीं हो सकता। यही उसकी थाती होती है।
उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए भी अनेक बच्चे विदेश जाते हैं। उनमें से बहुत से बच्चे अपने देश वापिस लौट आते हैं और कुछ वहीं अपनी आजीविका पाकर रहने लगते हैं। स्वदेश वापिस लौटकर आने वाले युवाओं को शायद अपने देश की मिट्टी से अपेक्षाकृत अधिक मोह होता है। इसलिए वे आजन्म वहाँ रचना-बसना नहीं चाहते।
विदेशी धरती पर रहने वालों को कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए जिससे उनके अपने देश के नाम पर बट्टा लगे अथवा उस देश की सरकार को मजबूर होकर उन्हें वहाँ से निष्कासित करना पड़ जाए। यदि ऐसा हो जाए तो उनके लिए समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं। इसलिए उन्हें हमेशा ही अपना कदम फूँक-फूँककर रखना चाहिए, जिससे उन्हें परदेश में कभी अपमानित न होने का अवसर न मिले।
पहली पीढ़ी जो विदेश में जाकर बस जाती है, उसे उस नए स्थान पर सामञ्जस्य स्थापित करने में बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वह अपने संस्कारों को भूल नहीं पाती और नए रीति-रिवाजों को अपनाने में उसे हिचचिकाहट होती है।
यह ऊहापोह की स्थिति हर समय उसे अपनी जड़ों की ओर ले जाने के लिए बेताब रहती है। हाँ, छोटे बच्चे फिर भी उस नए वातावरण में शीघ्र ही बिना कठिनाई के सरलता से घुलमिल जाते हैँ। परन्तु नई पीढ़ी जिनका जन्म ही वहाँ होता है, उनके सामने ऐसी समस्याएँ नहीं आतीं। उन्हें वहाँ रचने-बसने में दिक्कत नहीं आती क्योंकि वे अपनी आँखें उसी माहौल में खोलते हैं। इसलिए निस्सन्देह वे वहीं के ही होते हैं।
कार्यक्षेत्र से अवकाश न मिल पाने के कारण समय की, और कभी-कभी धन की विवशताएँ आड़े आ जाती हैं। घर-गृहस्थी की समस्याएँ भी इसके मूल में रहती हैं। इसलिए उनका अपने देश में आवागमन इतनी सरलता से नहीं हो पाता। सबसे अधिक पारिवारिक सुख-दुख में शामिल न हो पाने की मजबूरी उनके हृदय को तार-तार कर देती है।
यही वह कठिन परीक्षा की घड़ी होती है जब उन्हें लगता है कि काश उनके पास पंख होते तो वे उड़कर चले जाते और अपनों के साथ उनके सहयोगी बन पाते। पर यह सब अपने हाथ में नहीं होता। मनुष्य की विवशताएँ मुँह बाए उसका दामन थामकर साथ-साथ चलती रहती हैं। उन पर किसी का वश नहीं चल पाता। वह तो बस मूक दर्शक की तरह परिस्थितियों का गुलाम बनकर रह जाता है।
अपने देश की मिट्टी जिसमें लोट-लोटकर मनुष्य बड़ा होता है, जिसका अन्न खाकर और अमृत तुल्य जल पीकर वह पुष्ट होता है, उसकी कशिश आजीवन हमेशा बनी रहती है। तभी तो इन्सान मनोनुकूल व्यवसाय से प्रभूत धनार्जन करके, सभी सुखों को जुटाकर भी स्वयं को पूर्ण नहीं समझ सकता।
इन्सानी कमजोरी है कि जो उसके पास नहीं होता, उसे वह पाना चाहता है और जो उसके पास होता है, वह उसकी कद्र नहीं करता। यही भटकाव की स्थिति ही उसकी समस्या का मूल कारण बन जाती है। इसी धुन के कारण वह सदा ही असन्तुष्ट रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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