एक-दूसरे के लिये जीने का नाम ही वास्तव में जिन्दगी कहलाता है। सामाजिक प्राणी इस मनुष्य को कदम-कदम पर दूसरों के सहारे की आवश्यकता पड़ती रहती है। उदाहरणार्थ मनुष्य स्वयं अपने आप को गले नहीं लगा सकता। अपनी पीठ नहीं थपथपा सकता। इसी तरह अपने ही कन्धे पर सिर रखकर रो भी नहीं सकता। इस तरह के अनेक कार्य हैं जिन्हें वह अपने बूते पर नहीं कर सकता, किसी और का उसे सहारा लेना पड़ता है।
इसलिए उसे अपना समय उन लोगों को देना चाहिए जो दिल से रिश्ते निभाने की समझ रखते हों। वास्तव में सभी रिश्ते पैसों के मोहताज नहीं होते। कुछ रिश्ते ऐसे भी होते हैं जो मनुष्य को उसके जीवन में लाभ तो नहीं दे पाते पर उसके जीवन को अपने सहयोग से मालामाल अवश्य कर देते है। अतः हर रिश्ते को पैसों से तोलते हुए उनका मोल-भाव कदापि नहीं करना चाहिए।
यद्यपि मनुष्य की प्रायः सभी दैनन्दिन आवश्यकताएँ पैसे से पूरी हो जाती हैं परन्तु फिर भी अच्छा स्वास्थ्य, आज्ञाकारी सन्तान, सहृदय बन्धु-बान्धव, बीता हुआ कल, बन्धुजनो का स्नेह आदि बहुत कुछ है जो वह अपनी धन-दौलत से कभी नहीं खरीद सकता। उस समय उसे अपने स्वजनों की दुआओं की जरूरत होती है।
इसीलिए मनीषी मनुष्य को समझाते हैँ कि अपने बन्धु-बान्धवों के साथ सदा प्रेम और सहृदयता का व्यवहार करना चाहिए। छोटी-छोटी बातों के कारण मनमुटाव करके उनसे रूठ जाना उचित नहीं होता। जैसे पत्ते वही सुशोभित होते हैं या सुन्दर दिखाई देते हैं जो अपनी शाखा पर लगे होते हैं। जब वे अपने मूल से टूटकर बिखर जाते हैं तब लोग उन पर चलते हुए निकल जाते हैं। उसी प्रकार अपने बन्धु-बान्धवों से किसी भी कारण अलग होकर रहने वाला व्यक्ति भी मौकापरस्त लोगों का सरलता से शिकार बन जाता है। वे उसे कुचलते हुए आगे बढ़ जाने में संकोच नहीं करते।
ऐसे लोगों के जीवन का एक ही ब्रह्मवाक्य होता है जिस सीढ़ी से ऊपर चढ़ो उसे धक्का मारकर गिरा दो ताकि कोई और उन तक पहुँचने की जुर्रत न कर सके। वे स्वयं को सफल और महान देखना चाहते हैं। उनका वश चले तो सारी दुनिया को अपना पिछलग्गू बना लें। किसी दूसरे के लिए आने वाले के सुअवसर को लपककर अपनी झोली में डाल लेने में उन्हें जरा भी संकोच नहीं होता।
यदि अपने मन को मारकर भी रिश्तों को टूटने से बचा लिया जाए तो यह सौदा किसी भी प्रकार से मँहगा नहीं माना जा सकता। मनुष्य की अपनी नजर अगर पवित्र हो यानी उसकी दृष्टि में खोट नहीं होता, तब सारे रिश्ते-नाते और यह संसार उसे मनभावन दिखाई देने लगता है। सभी उसे अपने ही प्रतीत होते हैं, कोई भी पराया नहीं दिखाई देता। उसे अपने सभी बन्धु-बान्धव प्रिय लगते हैं।
इसके विपरीत यदि वह स्वयं को महान और दूसरों को हीन समझने लगता है, तब उसे हर किसी में कमियाँ दिखाई देने लगती हैं। ऐसा अहंकारी सम्बन्धों की मर्यादा और गरिमा को समझता ही नहीं है। वह उनका अपमान करने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता। उसे अपने बराबर कोई दिखता ही नहीं है। उसे ऐसा लगने लगता है कि मानो सभी सम्बन्धियों का कद उसके समक्ष बौना हो गया है।
आपसी सम्बन्ध और भाईचारा बनाए रखने के लिए प्रयास करते रहना पड़ता है। अपने घर को साफ-सुथरा रखने के लिए उसकी सफाई और झाड़-पौंछ नित्य करनी पड़ती है। घर में लगाए गए पौधों को भी खाद और पानी देना पड़ता है। ठीक उसी तरह रिश्तों में कड़वाहट न आने पाए इसलिए मन में उगने वाले वैमनस्य रूपी खर-पतवार को निकालकर फैंकना चाहिए। उन्हें अपने प्यार से पोषित करते रहना चाहिए।
समय रहते हुए अपने सम्बन्धों को सहेजकर रखने वाला मनुष्य को कभी भी स्वजनों की उपेक्षा का शिकार नहीं होना पड़ता। सभी को यथोचित मान देने से ही परस्पर सम्बन्ध प्रगाढ़ होते हैं। कभी तो पहल करनी ही होगी तो फिर आज से ही कर ली जाए तो शुभ होना निश्चित है।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp