बुजुर्ग परिवार की रीढ़ होते हैं। उनके होने से ही परिवार का अस्तित्व होता है। यदि वे न होते तो परिवार भी नहीं होते। वे नमक की तरह बहुत उपयोगी होते हैं। जैसे नमक के बिना कितनी ही मेहनत करके बनाए सभी भोग स्वादिष्ट होने के स्थान पर स्वादहीन हो जाते हैं। उन्हें कोई भी खाना पसन्द नहीं करता।
इसीलिए जिस प्रकार भोजन का नमक से स्वाद बढ़ता है वैसे ही बुजुर्गों के रहने से घर-परिवार में रौनक बढ़ती है और सदस्यों के संस्कार बढ़ते हैं। अन्यथा बच्चे संस्कारहीन होकर देश और समाज पर भार ही बन जाते हैं। किसी परिवार में बुजुर्गों का होना उतना ही आवश्यक होता है जितना भोजन में नमक का होना।
मनुष्य अपने जीवन में सफलता पाने के लिए मन्दिरों में माथा रगड़ता है, तीर्थ स्थानों में भटकता है अथवा तथाकथित गुरुओं, तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के चंगुल में फंस जाता है।
जो व्यक्ति अपने बुजुर्ग माता-पिता को असहाय छोड़कर तीर्थ स्थलों पर अथवा मन्दिरों में भटकते रहते हैं, उनसे परमपिता परमात्मा बहुत नाराज होता है। वह ईश्वर उनकी सहायता करने के स्थान पर उन्हें अकेला छोड़ देता है।
मनुष्य के वास्तविक देवता और तीर्थ घर में बैठे हुए उसके जीवित माता-पिता होते हैं। इसीलिए उनके चरणों में सारा संसार होता है, उन्हीं के चरणों में स्वर्ग माना जाता है। इसीलिए गणेश जी ने भगवान भोलेनाथ और भगवती पार्वती यानी अपने माता-पिता की परिक्रमा करके, पूरे ब्रह्माण्ड की परिक्रमा अपने भाई कुमार कार्तिकेय से पहले पूर्ण कर ली थी।
प्रत्येक मनुष्य को अपना सम्पूर्ण जीवन उनकी सेवा में लगाना चाहिए। वह अपना सारा जीवन भी यदि उनकी सेवा करता रहे तो भी कम है। मनुष्य को इस पृथ्वी पर लाने का उनका उपकार उनकी सेवा से कहीं बढ़कर है। उनके इस ऋण से उऋण होना बिल्कुल असम्भव है।
दूसरे शब्दों में यही कहा जा सकता हैं कि उनकी आवश्यकताओं को अपना दायित्व समझकर अपने मन से पूर्ण करना चाहिए। उनकी सेवा-सुश्रुषा भार मानकर कदापि नहीं करनी चाहिए। सदा उनके खान-पान का ध्यान रखना चाहिए जैसे वे उनके लिए करते थे। अस्वस्थ होने पर उनके इलाज की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। यही उनकी सच्ची पूजा-अर्चना कहलाती है।
इसके विपरीत कुछ लोग अपने माता-पिता की धन-सम्पत्ति लड़-झगड़कर या धोखा देकर हड़प लेते हैं। उन बुजुर्गों को मानसिक सन्ताप देते हैं। वे उनके स्वास्थ्य और खान-पान का ध्यान नहीं रखते। उन्हें दरबदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देते हैं। ऐसे लोगों को अपने जीवनकाल में कभी सुख और शान्ति नहीं मिल पाती।
कभी-न-कभी जब उनका अन्तर्मन उन्हें कचोटने लगता है, वे पश्चाताप करते हैं। तब तक अपने ही हाथों से वे सब कुछ गँवा चुके होते हैं। तब समय उनका साथ नहीं देता। सब कुछ भूत के गर्भ में समा चुका होता है। चाहकर भी अपनी गलतियों को सुधारने का एक अवसर उन्हें नहीं मिल सकता।
जो लोग अपने माता-पिता को हर तरह से प्रसन्न और सन्तुष्ट रखते हैं उन्हें सदा ही उनका आशीर्वाद मिलता रहता है। उनका यश चारों ओर फैलता है। उन्हें लोग 'श्रवण पुत्र' कहकर सम्मानित करते हैं।
इसके विपरीत माता-पिता तिरस्कार करने वालों के लिए उनके मन को कष्ट होता है। वह मानसिक सन्ताप किसी बद् दुआ से कम नहीं होता। यह समाज भी उन्हें यदा कदा तिरस्कृत करता रहता है। सब सुविधाओं के होते हुए भी उनके मन का कोई कोना रीता या खाली रह जाता है।
जिन लोगों को इस संसार में माता-पिता का आशीर्वाद मिल जाता है, उनसे परमपिता भी प्रसन्न रहते हैं। ऐसे लोगों के जीवन में खुशियाँ हमेशा अपनी दस्तक देती रहती हैं। समाज भी उन्हें यथोचित सम्मान देकर गौरवान्वित अनुभव करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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