हर माता-पिता अपनी सन्तान का लालन-पालन अपनी सामर्थ्य से भी बढ़कर करते हैं। उनके सुनहरे भविष्य के लिए जी-जान से यत्न करते हैं। वे सदा इस बात का ध्यान रखते हैं कि उनके बच्चे को किसी प्रकार की कोई कमी न होने पाए।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि बच्चों को अपनी मनमानी करने के लिए खुली छूट दे दी जाए। उन्हें कभी डाँट-फटकार न लगाई जाए। उन्हें खुदा बना दिया जाए। यदि इस तरह का लचर व्यवहार किया जाए तो निश्चित ही बच्चा जिद्दी, मुँहफट और उच्छ्रँखल बन जाता है। उसे छोटे-बड़े का लिहाज करने की तमीज नहीं रह जाती। जिसका परिणाम माता-पिता को आयुपर्यन्त भुगतना पड़ता है।
स्कूल में अध्यापक यह सोचकर उस बच्चे को किनारे कर देते हैं कि कुछ समय के लिए इसे सहन करना है। आस-पड़ोस वाले बच्चे उनका बायकाट कर देते हैं। उन्हें अपने घर नहीं आने देते। बन्धु-बान्धवों से कुछ समय के लिए ही मिलना होता है, इसलिए वे भी चाहे-अनचाहे इन बच्चों को झेल लेते हैं। माता-पिता की यह विवशता होती है कि वे उन्हें फैंक भी नहीं सकते बल्कि पालना ही पड़ता है।
बच्चों पर अँकुश लगाना एक सीमा तक बहुत आवश्यक होता है। जो माता-पिता यह कहकर उनका पक्ष लेते हैं कि बच्चा है, बड़ा होकर समझ जाएगा तो वे गलत सोचते हैं। वे अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं। बच्चे हैं तो स्वयं स्वतन्त्रता ले ही लेंगे, मानेंगे तो कदापि नहीं।
इसका कारण है कि बचपन की वे गलत आदतें बच्चे में इतनी पक जाती हैं कि उसे समझ ही नहीं आता कि उसने ऐसा नया क्या कर दिया जो इतना बवाल उठ खड़ा हुआ? तब उसका प्रतिरोध करने पर वह भड़क जाता है, हिंसा करने पर उतारू हो जाता है, गाली-गलौज करने लगता है, घर में तोड़-फोड़ करने लगता है। यानी उसका रवैया सहनशक्ति की सारी हदों को पार कर जाता है।
इन सारी समस्याओं का समाधान करते हुए आचार्य चाणक्य ने बड़े ही सुन्दर शब्दों में कहा है-
लालयेत्पञ्च वर्षाणि दस वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्।
अर्थात पाँच वर्ष तक पुत्र को लाड-प्यार करना चाहिए। दस वर्ष तक ताड़ना-वर्जना करनी चाहिए और जब पुत्र सोलह वर्ष की अवस्था में पहुँच जाए तब उसके साथ मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिए।
यह श्लोक भी यही समझाता है कि बच्चे को पाँच वर्ष की आयु तक ही लाड करना चाहिए। उसे समझाना चाहिए और अच्छे-बुरे का ज्ञान कराना चाहिए। उसके बाद दस वर्ष की आयु तक गलती करने पर डाँटना चाहिए और आवश्यक हो तो सजा भी देनी चाहिए। उस पर पाबन्दी भी लगानी चाहिए। दूसरे शब्दों में उसे न भी कहना चाहिए।
उसे पता होना चाहिए कि उसकी हर उचित माँग मानी जाएगी, अनुचित माँग को नहीं माना जाएगा। उसे इस बात का भी ज्ञान होना चाहिए कि उसके माता-पिता की आर्थिक स्थिति कैसी है? यदि बच्चों में इतनी भी संवेदनशीलता नहीं होती है तो ऐसे बच्चों पर धिक्कार है।
आजकल कहते हैं कि बच्चों को मारना नहीं चाहिए, यह बहुत गलत प्रचार है। अँग्रेजी भाषा में भी एक उक्ति है-
Spare the rod and spoil the child.
इसका भी यही अर्थ है कि छड़ी को दूर रखो और बच्चे को बिगाड़ दो। बच्चे को यह डर होना चाहिए कि गलती करने पर उसे बिल्कुल क्षमा नहीं किया जाएगा।
बच्चा जब सोलह साल का हो जाए यानी जब युवावस्था की दहलीज पर पहुँच जाए तब उसके साथ एक मित्र की तरह व्यवहार करना चाहिए। इसी तरह आम भाषा में भी कहते हैं कि जब बेटे को पिता का जूता पैर में आने लगे तो उसे मित्र की तरह मान लेना चाहिए। तभी बच्चा अपने मन की बात और अपने जीवन में आने वाली कठिनाइयों तथा परेशानियों को उनके साथ साझा कर सकता है। उनके जीवन के अनुभवों का लाभ उठाते हुए, उनसे विचार-विमर्श करके अपने मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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