यदि किसी देश में कुशासन हो तो समझ लेना चाहिए कि वह देश संक्रमण काल से गुजर रहा है। वहाँ अराजकता का साम्राज्य बना रहता है। उस देश की जनता में भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, धोखाधड़ी, अनैतिक व्यवहार आदि का प्रचलन बढ़ने लगता है। वहाँ परस्पर आत्मीयता, भाईचारा और विश्वास जैसे नैतिक गुण समाप्त होने की कगार पर पहुँच जाते हैं।
इसीलिए मनीषियों ने स्पष्ट निर्देश दिया है-
वरं न राज्यं न कुराजराज्यम्।
अर्थात कुराज्य का राजा होने से अच्छा यही है कि व्यक्ति किसी राज्य का राजा ही न बने।
प्रायः देशों में आजकल राजप्रथा का प्रचलन नहीं है। यहाँ हम देश के सर्वोच्च पद पर आसीन उस व्यक्ति को राजा के पद पर विद्यमान मान सकते हैं, जिसके हाथ में सत्ता की कुञ्जी होती है। यह पंक्ति हमें समझा रही है कि ऐसे कुराज्य का राजा होने से राजा न होना ही श्रेयस्कर है। ऐसे राज्य का राजा होना कोई गौरव का विषय नहीं है।
ऐसे राजा के समक्ष डर के कारण कोई निन्दा करे चाहे न कर सके परन्तु परोक्षत: उसकी कुचर्चा ही होती रहती है। सर्वत्र उसकी आलोचना होती है।
इसी कथ्य को आगे बढ़ाते हुए साथ में यह भी कहा है कि-
कुराजराज्येन कुतः प्रजासुखम्।
अर्थात कुशासित राज्य में प्रजा को सुख कहाँ?
कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है कि जिस देश में सुशासन कुशासन में बदल जाता है, वहाँ नैतिक मानवीय मूल्यों का अवमूल्यन अर्थात् ह्रास हो जाता है, उस देश की प्रजा को कभी भी सुख और शान्ति नहीं मिल सकती। वे चैन की बाँसुरी नहीं बजा सकते। उस देश में सर्वत्र लूट-खसोट का वातावरण बना रहता है। जिसका मन चाहता है वही अवसर का लाभ उठा लेना चाहता है, उसे किसी भी शर्त पर चूकना नहीं चाहता।
जन साधारण का कुछ भी वहाँ सुरक्षित नहीं रह जाता। चाहे उसकी अस्मिता हो अथवा उसका आत्मसम्मान हो। उसका सब कुछ दाँव पर लगा रहता है। उसके दिन और रात सभी परेशानी में व्यतीत होते हैं। हर समय उसके मन में खटका लगा रहता है कि भविष्य में उसका क्या होगा? वह इसकी कल्पना मात्र से सदा भयभीत रहता है।
जब वहाँ पर भाई-भतीजावाद का बोलबाला होने लगता है तब वहाँ कानून- व्यवस्था चरमराने लगती है। पैसे का सर्वत्र बोलबाला हो जाता है। इसलिए हर समर्थ व्यक्ति चाहे कैसा भी अपराध करे पर उसे मुक्ति मिल जाती है और निर्दोषों को अनावश्यक ही सजा मिलने लगती है। यानी वहाँ 'अँधेर नगरी चौपट राजा' वाली स्थिति बन जाती है।
यह सत्य है कि जब किसी देश में ऐसी अराजक परिस्थितियाँ बन जाती है जिसके लिए राजा और प्रजा सभी दोषी होते हैं। तब आपसी फुट के चलते देश धीरे-धीरे कमजोर होने लगता है। लोगों के स्वार्थ उन पर इतने अधिक हावी हो जाते हैं कि अपने देश की अस्मिता उनके लिए कोई मायने नहीं रखती। उसे गिरवी रख देने में उन्हें तनिक भी हिचचिकाहट नहीं होती।
उस समय वे भूल जाते हैं कि अपनी जन्मभूमि की सुरक्षा करना उस देश के हर नागरिक का कर्त्तव्य होता है। यह वही धरती है जिसका अन्न खाकर और जल पीकर वे बड़े और पुष्ट हुए है। उस देश के जयचन्द चन्द सिक्कों के बदले अपने देश की गुप्त जानकारियों को बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं। उन्हें इस बात की तनिक भी चिन्ता नहीं होती कि ऐसा करने के बाद उनका अपना क्या होगा?
इस तरह कमजोर होते हुए देश पर कोई भी पड़ोसी देश आक्रमण करके, उस पर अपना अधिकार जमाने मे सफल हो सकता है। हर नागरिक को यह बात अपने मन में गहरे बिठा लेनी चाहिए कि देश है तो उनका अस्तित्व है। अन्यथा गुलाम देश में बहुत दुर्गति होती है। अपनी स्वतन्त्रता को किसी भी मूल्य पर दाँव पर नहीं लगाना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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