एक मनुष्य को अपने जीवन में दो वक्त की रोटी, सिर छिपाने के लिए एक छत और दो जोड़ी कपड़ों की मात्र आवश्यकता होती है। ऐसा हमारे सयाने लोगों का कथन है।
समस्याएँ तभी जन्म लेती हैं जब हमारी महत्त्वाकाँक्षाएँ पैर पसारने लगती हैं। तब हमारा दिन-रात का सुख-चैन सब हवा होने लगता है अर्थात छिनने लगता है। हम कोल्हू के बैल की तरह अहर्निश जुटे हुए परेशान होते रहते हैं।
एक दाल अथवा सब्जी से रोटी खा लो चाहे छप्पन भोग बना लो रोटी तो वही दो ही खानी हैं। जब इंसान ईश्वर से मात्र धन की कामना करता है तो वह उसे प्रचुर धन तो देता है पर साथ ही यह भी कहता है कि बेटा अब अपनी सारी मनचाही वस्तुएँ खाकर तो दिखा। तब वह मनुष्य खजाने के ढेर बैठा हुआ भी खाली हाथ रहता है।
मालिक उसे धन के साथ ऐसे रोग भी उपहार में दे देता है कि डाक्टर उसे हर तरह के खाने की चीजों का परहेज बता देते हैं। वह बस टुकुर-टुकुर ताकता हुआ उन मनपसंद खाद्यों को निहारता रहता है। दिन भर में ढेरों दवाइयाँ खाता रहता है। तब फिर उस मालिक से गिला-शिकवा करता है और वह हंसता है कि मनचाहा पाकर भी शिकायत करता है मूर्ख मनुष्य।
मनुष्य को पहनने के लिए वास्तव में दो जोड़ी कपड़ों की आवश्यकता होती है। एक पहनो और फिर दूसरा अगले दिन पहनने के लिए धोकर सूखने डाल दो। हमने कपड़े की हवस भी इतनी बड़ा ली है जो एक और टेंशन का कारण बन जाती है।
हम सब लोगों की अल्मारियाँ कपड़ों से भरी रहती हैं फिर भी हमारे पास कहीं जाते समय पहनने के लिए कपड़े ही नहीं होते। बस एक ही रोना रोते रहते हैं सब कि क्या पहने कपड़े ही नहीं हैं। अरे कोई पूछे तो सही कि भाई ये जब कपड़े पहनने के लिए हैं ही नहीं तो फिर ये इतनी सारी अल्मारियाँ कपड़ों से क्योंकर भरी पड़ी हैं।
न हम खुद उन कपड़ों को पहनते हैं और न ही मंहगे और ब्राँडेड होने के कारण किसी को देना चाहते हैं।
रहने के लिए भी एक छत मनुष्य को चाहिए होती है। परन्तु जब सौभाग्य से उसे एक मनपसंद घर मिल जाता है तब वह दूसरा और फिर तीसरा घर बनाना चाहता है। कोई अन्त नहीं, इच्छाएँ तो असीम हैं। उनके पीछे भागते-भागते कब तक अपने सुख-चैन की आहूति दोगे।
पहला घर बन गया तो हम बड़े प्रसन्न हुए कि चलो सिर पर छत तो हो गई। थोड़े दिनों बाद दिमाग में फिर कीड़ा कुलबुलाने लगता है कि घर छोटा है गुजारा नहीं होता अब बड़ा घर चाहिए। इसी तरह हम अपने दुखी होने के लिए हजारों बहाने ढूँढते ही रहते हैं।
एवंविध आधुनिक भौतिक उपकरणों के पीछे हम भागते रहते हैं। अपनी हैसीयत के अनुसार पहले छोटी गाड़ी, फिर बड़ी गाड़ी और फिर मंहगी-से-मंहगी गाड़ी। इसी प्रकार टीवी, फ्रिज, एसी, मोबाइल फोन और बच्चों के खिलौने आदि।
हमारी निस्सीम कामनाएँ हमारा जीना दूभर कर देती हैं। हम चक्करघिन्नी की तरह इस दुनिया में गोल-गोल घूमते रहते हैं। जीवन की चक्की में पिसते हुए रोते-झींकते रहते हैं। यह विचार मन में नहीं आता कि- 'सामान सौ बरस का पल की खबर नहीं।'
चार दिन के लिए मिली इस जिन्दगी में उस मालिक दो घड़ी बैठकर याद कर लिया जाए जिसने इस जीवन में हमारी सारी मनोकामनाएँ पूर्ण कर दी हैं। यदि मनुष्य जीवन में थोड़ा संतोष कर ले तो बहुत मजे से इस मानव जीवन का आनन्द ले सकता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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