अपने दुखों, कष्टों और परेशानियों से मुक्ति पाने के लिए ही मनुष्य को भगवान याद आते हैं। अपनी पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए हर इन्सान ईश्वर को याद करने लगता है। यदि सुख में प्रभु को याद किया जाए तो मनुष्य के पास दुख नहीं आता। यानी उसमें दुखों से लड़ने, उनसे मुक्ति पाने की सामर्थ्य मिल जाती है। इस तरह मानव का जीवन बहुत आन्नदमय और सुखद बना जाता है।
प्रत्येक जीव में परमात्मा को देखना चाहिए। शरीर नश्वर है, इसलिए अपने इस क्षणभंगुर जीवन में कभी भी इस देह पर अभिमान नहीं करना चाहिए। जिसके मन में अभिमान का भाव आ जाता है उसमें भगवान का वास नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में वह प्रभु दूर होने लगता है क्योंकि घमण्ड में आकर वह मनुष्य स्वयं को ही सर्वसमर्थ समझने लगता है।
हर समय विषय और विकारों में डूबे रहने पर भी मनुष्य की इन्द्रियाँ कभी तृप्त नहीं होतीं। अपनी इन्द्रियों का शमन करने के चक्कर में फंसा वह अपने शरीर को रोगी बना लेता है। रोगग्रस्त हो जाने पर उसका मन हर समय अशान्त रहता है। उस समय मानव को प्रभु सिमरन की सुधि आती है।
सुखों की हिलोर में प्रायः लोग प्रभु को स्मरण करना ही नहीं चाहते। जहाँ वह दुखों से घिर गया वहीं मालिक की याद सताने लगती है। तब वह प्रभु के नाम का सिमरन करने लगता है। उसकी कृतघ्नता तो देखो, उस समय वह उस दाता को कष्ट से मुक्त करने के लिए रिश्वत तक देने की बात कह देता है।
कबीरदास जी ने इसीलिए मनुष्य को समझाते हुए कहा है-
दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुख काहे को होय।।
इस दोहे के माध्यम से कबीर मानव को चेतावनी देते हैं। वे कहते हैं कि दुख मे सब प्रभु को स्मरण करते हैं परन्तु सुख में उसे कोई याद नहीं करता। यदि सुख में उसका स्मरण कर लो तो कभी दुख आएगा ही नहीं।
इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाना चाहिए कि प्रभु का स्मरण करने मात्र से मनुष्य के सारे दुख कट गए। अपने पूर्वजन्म कृत कर्मों से कोई जीव बच नहीं सकता, यही ईश्वरीय न्याय है।
हमारे मनीषियों ने इस विषय में हमारा मार्गदर्शन किया है। वे कहते हैं कि हर समय यानी चौबीसों घण्टे मनुष्य को ईश्वर का स्मरण करना चाहिए। कैसी भी अवस्था क्यों न हो उसी की शरण में रहना चाहिए।
इसका कदापि यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि दुनिया को बिसराकर बस धूनी रमाकर बैठ जाएँ। इसका सरल-सा अर्थ यही है कि अपने सभी दैनन्दिन कार्यों और दायित्वों का भली-भाँति निर्वहण करते हुए उस मालिक को याद करना चाहिए।
सभी द्वन्द्वों को सहन करते हुए, अपने सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मो का फल उस मालिक को अर्पित करते रहना चाहिए। व्यवहार मे ऐसा करने वाला व्यक्ति कभी अभिमानी नहीं बन सकता। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में यही उपदेश दिया है कि-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोSस्तवकर्मणि।।
अर्थात केवल कर्म करना ही मनुष्य का अधिकार है, फल की कामना नहीं करनी चाहिए। कर्मफल का हेतु बनने पर मनुष्य में अकर्मन्यता का भाव आने लगता है।
ईशोपनिषद के प्रथम दो मन्त्र भी यही समझाते हैं कि कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की कामना करनी चाहिए। कर्म किए बिना कोई चारा नहीं। ऐसा करने हुए भी मनुष्य कर्म में लिप्त नहीं होता।
दुख हो या सुख जो मनुष्य हर समय परमात्मा का स्मरण करता है उसके जीवन में सुख आए अथवा दुख वह हर स्थिति में समान रहता है। दोनों को प्रसाद समझकर ग्रहण करता है। जिसका मन उस निरंकार प्रभु से जुड़ा रहता है उसे ही परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है, आवागमन के इस चक्र से मुक्ति मिल सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
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