पक्षियों के बच्चों की भाँति जब बच्चे लम्बी उड़ान भरकर दूर परदेश में चले जाते हैं तो उनके मन का कोई कोना रीता रह जाता है। अपनी मातृभूमि और जन्मदाता माता-पिता की याद उन्हें सदा सताती रहती है। अपनी नौकरी, व्यवसाय अथवा शिक्षाग्रहण आदि की विवशताओं के कारण इतनी दूरी को पाट पाना उनके वश में नहीं रह जाता।
इसीलिए रामायणकाल में सुवर्णमयी लंका के राजा दशानन को पराजित करके भी भगवान श्रीराम ने उनके छोटे भाई विभीषण को राज्य सौंपते हुए अपने अनुज लक्ष्मण से कहा था-
न मे सुवर्णमयी लंकाSपि रोचते लक्ष्मण।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
अर्थात हे लक्ष्मण! मुझे स्वर्णिम लंका भी रुचिकर नहीं लगती। अपनी मातृभूमि और अपनी माता दोनों स्वर्ग से भी महान हैं, यानी दोनों की बराबरी कोई नहीं कर सकता।
नौकरी, शिक्षा आदि की विवशता या अन्न-जल के कारण या भाग्य इनमें से परदेश जाने का कोई भी कारण हो सकता है। नौकरी अथवा व्यवसाय की विवशता होती है जब वे अपनों के सुख और दुख में शिरकत नहीं कर सकते। उस समय उनका चंचल मन गम्भीर होकर उन्हें कचोटता रहता है।
वे उड़कर अपने बन्धु-बान्धवों के पास आकर उनका और अपना सुख-दुख साझा करना चाहते हैँ परन्तु कभी छुट्टी न मिलने और कभी समय की कमी अथवा कभी धन की कमी आड़े आ जाती है। इस तरह की कोई भी मजबूरी उनका रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है और वे बेचारे बस अपना मन मसोसकर रह जाते हैं।
विदेश में रहते हुए अपने देश की मिट्टी, अपनी मातृभूमि उन्हें बार-बार पुकारती है। इसीलिए उनके मन में भी यही भाव आता है कि किसी भी बहाने अपने देश जा सकें। वास्तविकता यही है कि अपने देश, अपना वेश और अपनी संस्कृति से हर व्यक्ति को प्यार होना चाहिए। जिसे इन सबसे प्यार नहीं है, वह इन्सान कहलाने के योग्य नहीं है।
अपने जन्मजात सस्कारों को वे अपने इस जीवनकाल में छोड़ नहीं पाते। उस देश की संस्कृति को चाहकर भी अपना नहीं पाते। चाहे उन्हें उस देश की नागरिकता भी क्यों न मिल जाए किन्तु अपनी जड़ों का मोह, किसी भी हालत में उससे उनका अपनापा नहीं टूट सकता।
जब भी कहीं कोई चर्चा होती है तो वे बड़े स्वाभिमान से स्वयं को अपने उसी देश का नागरिक ही बताते हैं, जिसकी गोद में लोटकर बड़े हुए होते हैं। जिस देश में रहते हैं, उसकी नागरिकता लेने के बावजूद भी वे आजन्म अपने मूल देश के नाम से ही जाने जाते हैं। वही उनकी वास्तविक पहचान होती है।
इसी प्रकार अपने देश के ही अन्य प्रदेशों में रहने वाले बच्चों की भी कमोबेश यही स्थिति होती है। जब जब भी उनकी आवश्यकता उनके अपने बन्धु-बान्धवों को होती है उस समय अवकाश न मिल पाने के कारण वे सबको निराश कर देते हैं। साथ-ही-साथ स्वयं भी निस्सन्देह आहत हो जाते हैं।
यह उन लोगों की मजबूरी ही होती है कि वे अपने देश में रहते हुए भी अपनों के प्यार से दूर अकेले जीवन जीने के लिए विवश होते हैं। चाहकर भी दुख-सुख में सम्मिलित नहीं हो सकते।
आज मँहगाई के कारण दोनों पति और पत्नी को कार्य करना पड़ता है। घर से दूर रहते हुए फोन के माध्यम से चाहे बच्चे अपने घर-परिवार से जुड़े रहते हैं किन्तु अपने वृद्ध होते हुए माता-पिता की चिन्ता से वे मुक्त नहीं हो पाते। उनका ध्यान घर की ओर ही लगा रहता है।
कुछ समय के लिए मेहमान की तरह आने वाले बच्चों और उनके माता-पिता का मन भले ही न भर सके पर उन्हें जाना तो पड़ता ही है। ये दूरियाँ चाहे समय अथवा मजबूरियों की भले ही हों पर मनों की दूरियाँ किसी भी हालत में नहीं होनी चाहिए। इसका सभी को ध्यान रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail. com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco