हर मनुष्य जीवन और मृत्यु की जंग को सुविधापूर्वक जीत लेना चाहता है। वह इस जन्म-मरण के रहस्य को जानने और समझने के लिए हर समय उत्सुक रहता है। यह कुण्डली मारकर उसके जीवन में बैठा हुआ है। सारा जीवन बीत जाता है पर यह सार उसकी समझ में नहीं आ पाता। इन्सान क्या करे और क्या न करे की कशमकश से उभर नहीं पाता।
भारतीय संस्कृति में बहुत ही गहरी जड़े जमाकर बैठे हुए हैं कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म। इनके बिना हम जीवन मे एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। इन दोनों के विषय में हर व्यक्ति जानना चाहता है, समझना चाहता है। जितना गहरे उतरता जाता है, उतना ही उलझता जाता है।
मोटे तौर पर हम यह कह सकते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का हर जीव आवागमन के चक्र से मुक्त नहीं हो सकता। हर सम्बन्ध कर्म पर आधारित है। जीव जन्म लेने के पश्चात उन सभी लोगों के सम्पर्क में स्वतः ही आ जाता है जिनके साथ उसका लेनदेन का सम्बन्ध होता है।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि पूर्वजन्म में जिसका उसने किसी भी रूप में ऋण चुकाना होता है उससे उसका संयोग हो जाता है। वह व्यक्ति उसका माता, पिता, भाई, बहन, चाचा, मामा आदि परिवारी जन हो सकता है। कोई पड़ौसी, बन्धु-बान्धव, मित्र, कार्यालयीन साथी या बास कुछ भी हो सकता है।
कभी-कभी राह चलते अनजाने व्यक्ति से मधुर सम्बन्ध बन जाते हैं और वह उसकी सहायता कर जाता या वही उसकी कोई मदद कर देता है। इसके विपरीत अचानक मिले अनजान व्यक्ति से गाली-गलौच हो जाती है अथवा उसके कारण कोई हानि हो जाती है।
इसका अर्थ यही निकलता है कि उस व्यक्ति विशेष के साथ पूर्वजन्म का इतना ही सम्बन्ध था कि ऐसा शुभाशुभ व्यवहार हो गया। उसके पश्चात शायद सारा जीवन उस व्यक्ति से कभी सम्पर्क भी नहीं होता। यह यही सिद्ध करता है कि उन दोनों के पूर्वजन्म के वे विशेष कर्म अब समाप्त हो गए हैं।
एक बोधकथा की हम चर्चा करते हैं। एक योगी किसी वृक्ष के नीचे अपने ध्यान में मग्न बैठे थे। उसी समय एक व्यक्ति वह आया और उसने उनका बहुत अपमान किया। वे शान्त रहे और उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। उन्हें उसके दुर्व्यवहार पर क्रोध नहीं आया।
उनके शिष्य यह सब कुछ देख और सुन रहे थे, उन्होंने अपने गुरु से उस व्यक्ति पर क्रोध न करने का कारण पूछा। उन्होंने उत्तर दिया कि संभवतः पूर्वजन्म में उन्होंने उसका अपमान किया होगा। शायद इसी कारण उसने मेरा अपमान किया। अब मेरा और उसका हिसाब बराबर हो गया है।
यह घटना प्रत्यक्ष रूप से हमारी भारतीय कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म की प्रतिपादक है जिसे समझने का हम प्रयास कर रहे हैं।
यहाँ मैं एक और सत्य को उद्घाटित करना चाहती हूँ कि पूरे विश्व में अरबों-खरबों मनुष्य और जीव-जन्तु रहते हैं परन्तु हमारा सम्बन्ध उन मुट्ठी भर लोगों या जीवों के साथ ही क्यों होता है? इतने बड़े भारत देश अथवा संसार के उस स्थान विशेष में जन्म क्यों होता है?
इन प्रश्नों के उत्तर में मनीषियों के विचार बिल्कुल स्पष्ट हैं कि उनमें से किसी की मनुष्य ने सेवा करनी होती है अथवा किसी से सेवा करवानी होती है। इसी तरह किसी सै धन लेना होता है अथवा किसी पर धन व्यय करना होता है।
एवंविध धोखाधड़ी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचारी, पीठ मे छुरा भौंकने जैसे कार्य नाक का बाल बनकर भी कर जाते हैं। ये सब भी व्यक्ति लेनदेन के ही भाग हैं। इसलिए किसी से शिकवा-शिकायत न करके यही मानना चाहिए कि यदि हमने पूर्वजन्म में उस व्यक्ति का कुछ अनिष्ट किया है तो हमारे कर्मों का निपटान हो गया। यदि उस व्यक्ति का हमने पूर्वजन्म में अहित नहीं किया तो आगामी जन्म वह अपना कर्ज चुकाएगा।
इस प्रकार गहन-गम्भीर कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म विषय को वेदादि ग्रन्थों के स्वाध्याय के अनुसार जितना मैं समझ पाई हूँ, स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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