स्वाभिमान और अभिमान ये दोनों मनुष्य के चरित्र को परिभाषित करते हैं। जहाँ स्वाभिमान उसके उच्च व्यक्तित्व का उदात्त अंग कहलाता है तो वहीं अभिमान उसके पतन का कारण बनता है।स्वाभिमान मनुष्य का गुण बन जाता है और अभिमान उसका अवगुण कहलाता है।
स्वाभिमान ही प्रत्येक मनुष्य का आभूषण है। यह हर इन्सान के अंतस में विद्यमान उसका प्रिय मित्र होता है। स्वाभिमान रूपी पूँजी जिसके पास नहीं होती, वह व्यक्ति मृतप्राय होता है। उसे हर कोई रौंदता हुआ आगे बढ़ जाता है। इसी प्रकार जिस भी देश के लोगों में स्वाभिमान का भाव नहीं होता, वह राष्ट्र मृतवत होता है। उस पर कोई भी शत्रु देश आक्रमण करके, उसे सरलता से अपने अधीन कर लेता है।
इसके विपरीत अभिमान मनुष्य का वह अवगुण है जो इंसान के बाहर छलकता है यानी सिर चढ़कर बोलता है। यह मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। मनीषियों का कथन है कि अहंकारी कितने भी ऊँचे बोल क्यों न बोल ले उसका अन्त हमेशा बुरा ही होता है।
मनस्वी लोगों का एकमात्र धन स्वाभिमान होता है। निम्न सूक्तियों में भी यही कहा है-
मानो हि महतां धनम्। तथा
एकमानधनो हि मनस्वीनाम्।
स्वाभिमानी लोग अपने घर में भूखे रह लेते हैं परन्तु किसी दूसरे को कानोंकान खबर नहीं लगने देते। उनके लिए स्वाभिमान का त्याग करना मृत्यु का वरण करने के समान होता है। ऐसे महानुभाव मृत्यु तुल्य कष्टों और परेशानियों को हँसते-हँसते सहन कर लेते हैं। वे अपने स्वाभिमान का सौदा कभी भी, किसी भी मूल्य पर नहीं करते।
ऐसे स्वाभिमानियों से तो बड़े-बड़े साम्राज्य भी थर-थर काँपते हैं। वे जानते हैं कि ऐसे लोगों को अपने जीवन की परवाह तो होती नहीं है। अपने मान के लिए वे कभी भी समझौता नहीं करते। इसीलिए वे उनका सम्मान करते हैं चाहे वह अपनी इज्जत बचाने के लिए ही क्यों न करते हों।
इनके विपरीत अहंकार में चूर लोग खुद तो डूबते ही है, अपने साथियों को भी डूबाने का अपराध करते हैं। वे इस तथ्य को भूल जाते हैं- 'घमण्डी का सिर नीचा।'
अहंवादी व्यक्ति कभी किसी का प्रिय नहीं बन सकता। उसका स्वयं को सबसे विशेष मानना ही इसका प्रमुख कारण है। इसलिए वह सबके साथ मिल-जुलकर नहीं रह सकता। हर व्यक्ति उसे अपने स्टैण्डर्ड का नहीं लगता। तभी उसे हर इन्सान में कमियाँ ही दिखाई देती हैं। वह सर्वत्र स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने की फिराक में लगा रहता है।
अपने इस अहं के कारण वह ईश्वर को भी कुछ नहीं समझते। हिरण्यकश्यप जैसे अहंकारी स्वयं को ही भगवान कहलवाने लगते हैं। अतः जो उनकी सत्ता को चुनौती देने का दुस्साहस करता है, उसे वे समूल नष्ट कर देते हैं। चाहे वह प्रहलाद जैसा उनका अपना प्रिय दुलारा बेटा ही क्यों न हो।
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कोई छोटा बच्चा अपने भोलेपन के कारण यदि दूसरों के समक्ष अपने अहं का प्रदर्शन कर बैठता है तो लोग उसे बच्चे की मूर्खता कहकर क्षमा कर सकते हैं परन्तु बड़ों की गर्वोक्तियों को तो किसी भी शर्त पर माफ नहीं किया जा सकता।
स्वाभिमानी और अहंकारी दोनों ही प्रकार के लोगों की कहानियाँ इतिहास के पन्नों मे कैद हैं। बस उन्हें खोजकर पढ़ने की आवश्यकता है।
स्वाभिमान और अहंकार दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। स्वाभिमानपूर्वक जीवन व्यतीत करना दुधारी तलवार पर चलने के समान होता है। जहाँ जरा-सी चूक हुई वहीं लहूलुहान हो जाने का डर बना रहता हैं।
दुनिया तो बस ऐसे ही अवसर की तलाश में रहती है, जब दूसरों का उपहास कर सके। उन पर तीक्ष्ण व्यंग्य बाणों से प्रहार कर सके। अतः अपने मिथ्या अभिमान का त्याग करके स्वाभिमान को बनाए रखना चाहिए और उसकी यथासम्भव सुरक्षा करनी चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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