प्रत्येक मनुष्य अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में अनथक परिश्रम करता हुआ धन-वैभव जुटा लेता है। तब सोचने लगता है कि वह इतना सामर्थ्यवान हो गया है कि मानो अलाद्दीन का चिराग उसके हाथ लग गया है। अब वह दुनिया की हर वस्तु खरीद सकता है, अपनी मुट्ठी में कर सकता है। इस संसार की कोई भी ऐसी वस्तु नहीं हो सकती, जिसकी वह कामना करे और उसे पा न सके यानी वह वस्तु उसकी पहुँच से परे हो।
अपने समक्ष उसे दूसरे सभी लोग बौने प्रतीत होने लगते हैं। वह हर किसी को चींटी की तरह मसल देने की बात करने लगता है। वह मानने लगता है कि उसके आगे सिर उठाने की जुर्रत कोई नहीं कर सकता। जो भी अपना सिर उसके सामने उठाने की हिमाकत करेगा तो वह उसका सिर कुचलकर रख देगा। पद और सम्मान को पाकर वह उसके मद में वह अन्धा हो जाता है।
मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन तो जुटा सकता है परन्तु वास्तविक सुख, मानसिक शान्ति, आज्ञाकारी सन्तान, अच्छे पड़ोसी आदि नहीं खरीद सकता। इसी प्रकार वह चाहे भी तो मनचाहे बन्धु-बान्धव भी नहीं पा सकता। वह मँहगे-से-मँहगा इलाज करवा सकता है पर किसी भी शर्त पर अच्छा स्वास्थ्य खरीद सकने में असमर्थ रहता है।
मनुष्य जन्म और मृत्यु का समय अपनी इच्छानुसार तय नहीं कर सकता। अन्तिम समय में यदि वह चाहे कि उसके कुछ काम अधूरे रह गए है, उन्हें पूरा करने के लिए यदि उसे थोड़े-से पलों की मोहलत मिल जाए तो चाहकर भी वह उस समय को खरीद नहीं सकता। न ही उसे वह मनचाही मोहलत खैरात में मिल सकती है।
वह यदि चाहे कि संसार के सारे कार्य-व्यवहार उसकी इच्छा से होने लग जाएँ तो यह सर्वथा असम्भव है। ऐसा कभी नहीं हो सकता। ब्रहाण्ड में होता वही है जो ईश्वर चाहता है। तुलसीदास जी ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा है-
होगा सोई जो रामरचि राखा।
इसी कड़ी में यह भी जोड़ा जा सकता है कि इस दुनिया में आज तक कोई भी व्यक्ति इतना अमीर नहीं हो सका कि वह अपने बीते हुए कल को खरीदकर लौटा सके। एवंविध न ही कोई व्यक्ति इतना गरीब हो सकता है कि वह अपने आने वाले कल को संवारने की सामर्थ्य न रख सके।
पुरुषार्थ करना तो प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य होता है। अपने हाथ-पर-हाथ रखकर वह कभी निठल्ला बैठ नहीं सकता, इसलिए कुछ-न-कुछ जोड़-तोड़ करते रहना उसका स्वभाव बन जाता है। वह या तो सकारात्मक विचार रखेगा अथवा फिर नकारात्मक। जीवनकाल में उसे क्या प्राप्त होगा और क्या नहीं? यह उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार सब उसे बिना कहे यथासमय मिल जाता है।
मनुष्य ने यदि पूर्व जन्मों में सत्कर्म किए होते हैं तो इस जन्म में वह स्वर्ग के समान सुखों का उपभोग करता है। इसके विपरीत यदि उसने दुष्कृत्य किए होते हैं तो उसे कष्टों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है। हर व्यक्ति अपने लिए शुभ की कामना करता है। परन्तु जाने-अनजाने उससे कुछ-न-कुछ ऐसे अनुचित कार्य हो ही जाते हैं, जिनका दुष्परिणाम यथासमय उसे भुगतना पड़ जाता है।
सबसे प्रमुख बात है अपने अहं को वश में करना। यह अधिकांश मुसीबतों का कारण है। यही है जो मनुष्य के विवेक का हरण करके, उसके सोचने-समझने की शक्ति को क्षीण करता है। फिर उसे संकट में धकेल देता है। अपने मिथ्याभिमान को यद्यपि नियन्त्रित करना कठिन है परन्तु असम्भव कदापि नहीं है।
अपने अहंकार को वश में करने वाला मनुष्य स्वयं को धरती पर अंगद के पैर की तरह जमाकर रखता है, अनावश्यक ही गुब्बारे की तरह हवा में इधर-उधर उड़ता नहीं फिरता। वह जमीनी हकीकत से जुड़ा रहता है। इसीलिए वह परेशानियों से बचा रहता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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