वृद्धावस्था में अपनी माता का ध्यान उसी प्रकार रखना चाहिए जिस तरह वह बचपन में आपका ख्याल रखती थी। आयु बढ़ने के साथ-साथ दिन- प्रतिदिन शारीरिक रूप से अक्षम होते रहने के कारण वह अपने दैनन्दिन कार्यों को करने में असमर्थ होने लगती है। इसलिए उसके जीवन में स्वाभाविक रूप से ही असुरक्षा की भावना आने लगती है।
उसके मन में नित्य प्रश्न उठने लगते हैं- मेरा अब क्या होगा? हमारी देखभाल कौन करेगा? किसी को भी हमारी परवाह नहीं है? आदि।
बच्चे यदि देश में अन्यत्र कहीं रहते हैं अथवा विदेश में रहते हैं, उस समय ये भाव मन में आ ही जाते हैं। परन्तु यदि बच्चे पास-पड़ोस में या थोड़ी ही दूरी पर रहते हों अथवा एक ही घर में रहते हों और न पूछें तो इन विचारों का मन में आना बहुत ही स्वाभाविक होता है।
इन सब प्रश्नों के उत्तर खोजने में जब वह स्वयं को असमर्थ पाती है, तब उसके अन्तस में नकारात्मक विचार घर करने लग जाते हैं। नकारात्मक विचारों की उधेड़बुन के कारण उसके व्यवहार में चिड़चिड़ापन आने लगता है। बात-बात पर वह झल्लाने लगती है। सदा शान्त रहने वाली वह भी अनायास ही क्रोधी स्वभाव की बनने लगती है।
आयु के इस मोड़ पर जब वे दोनों माता-पिता असहाय हो जाते हैं तो उन्हें बहुत अधिक देखभाल की आवश्यकता होती है। परन्तु यदि दुर्भाग्वश इस संसार में वह अकेली रह जाती है तो उसे उस अवस्था में दूसरों के सहारे अकेला छोड़ देना कभी भी, किसी भी कारण से उचित नहीं ठहराया जा सकता।
ऐसे बच्चों को धिक्कार है जिनकी माँ को इस असहाय अवस्था में खाने, पहनने, दवा आदि के लिए मोहताज होना पड़े या दरबदर की ठोकरें खाने के लिए विवश होना पड़े। यदि एक-एक पैसे के लिए उसे किसी अजनबी के समक्ष हाथ फैलाना पड़े।
इस अवस्था में यदि कोई भी इन्सान जो अकेला रहता है, उसकी देखरेख करने अथवा उसे सम्हालने वाला यदि कोई नहीं होगा तब वह निस्सन्देह अपना मानसिक सन्तुलन खो सकता है। वही स्थिति उस माँ की भी हो जाती है जो इस दुनिया में अकेली रह जाती है।
बच्चों के पास सब कुछ हो और माँ के लिए उनके घर में एक कोठरी भी न हो। और यदि उसे घर में लोकलाज के डर से रखें भी तो ऐसे कमरे में छोड़ दें जहाँ से उस पर किसी नजर न पड़े। घर के सदस्य यदि उससे ढंग से बात भी न करें और उसे एक फालतू सामान की तरह देखें तो यह उन बच्चों का दुर्भाग्य कहा जाएगा।
ऐसे नालायक बच्चों से दुखी होकर माँ को यदि किसी ओल्ड होम में शरण लेनी पड़े अथवा मथुरा-वृन्दावन, हरिद्वार या काशी में जाकर विपन्नावस्था में अपना बुढ़ापा गुजारना पड़े तो यह किसी सभ्य कहे जाने वाले बच्चे को कभी शोभा नहीं देता।
पुत्र कुपुत्र हो सकता है परन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती। इसी भाव को 'चैतन्यचन्द्रोदयम्' ग्रन्थ में कहा है-
हन्त मातरि भवन्ति सुतानां
मन्तव: किल सुतेषु न मातु:।
अर्थात माता के प्रति पुत्र अपराध कर सकता है पर पुत्र के प्रति माता का अपराध नहीं हो सकता।
माता हर अवस्था में अपने बच्चों का हित साधती है। वह उसे किसी भी कारण से कोसना नहीं चाहती, जब तक कि वह बच्चों द्वारा सताए जाने पर मजबूर न हो जाए। वह अपने आशीर्वाद की झड़ी बच्चों पर लगाती रहती है।
स्कन्दपुराण ने माता का त्याग न करने का आदेश दिया है-
पतिता गुरवस्त्याज्या माता च न कथञ्चन।
गर्भधारणपोषाभ्यां तेन माता गरीयसी॥
अर्थात गुरु यदि पथ भ्रष्ट हो तो त्याज्य होता है। माता किसी भी कारण से त्याज्य नहीं हो सकती। गर्भधारण और पोषण करने के कारण माँ का स्थान सर्वोपरि होता है।
सारी आयु यदि मनुष्य माँ की सेवा करता रहे तब भी अपनी माँ के ऋण से उऋण नहीं हो सकता। इसलिए अपनी माँ को अपने आचार-व्यवहार से इतना प्रसन्न रखिए जिससे उसका रोम-रोम आनन्द से झूमता रहे। तभी अपने बच्चों के लिए आप स्वयं एक उदाहरण बन सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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