माँ की पूर्णता उसके मातृत्व से होती है, ऐसा शास्त्रों और मनीषियों का कथन है। सन्तान पर माँ का अधिकार हर रिश्ते से नौ मास अधिक होता है क्योंकि वह नौ माह तक उसे अपने गर्भ में धारण करती है। उसे अपने रक्त से सींचती है। दुर्भाग्यवश यदि पति और पत्नी में तलाक की स्थिति बनती है तो उस समय कानूनन माँ को ही नाबालिग बच्चों की कस्टडी दी जाती है।
महाभारत के वनपर्व में माता की महानता को दर्शाते हुए कहा है-
मातस्तु गौरवादन्ये पितृतन्ये तु मेनिरे।
दुष्करं कुरुते माता विवर्धयति या प्रजा:॥
अर्थात कुछ लोग गुरुता के कारण माता को और कुछ लोग पिता को श्रेष्ठ समझते हैं। परन्तु माता ही दुष्कर कार्य करती है, वही सन्तान का पालन-पोषण करती है।
माँ के महत्त्व का प्रतिपादित यह श्लोक कर रहा है। माता अपनी सन्तान का पालन करने के साथ-साथ उसे संस्कारित भी करती है। वह इस संसार में उसे सिर उठाकर चलने के योग्य बनाती है। उसकी उन्नति में सदा प्रसन्न होती है। सारी आयु उसे अपनी छत्रछाया में बढ़ते हुए देखने की चाहत रखती है।
हर माता की यह हार्दिक इच्छा होती है कि उसे माँ कहकर पुकारने वाली सन्तान उसकी गोद में किलकारियाँ भरे। वह उसे निरखकर निहाल हो जाती है। उसके रूप में स्वयं को जीती है। उसके दुख में परेशान हो जाती है और सुख में आह्लादित होती है। उसकी तुतलाती बोली पर वह बलिहारी जाती है।
उसकी अँगुली थामकर उसे चलना सिखाती है और जब वह ठुमक-ठुमककर चलता है तो मानो वह जी जाती है। जब वह नन्हा बच्चा अपने कपड़े गन्दे करके, अपने मुँह पर चित्रकारी करके, उसकी गोद में आकर विश्राम करता है तब माँ उस पर नाराज होने के स्थान पर उसका मुख चूमकर स्वर्गिक आनन्द का अनुभव करती है।
उसे अपने पास बिठाकर बहुत ही धैर्यपूर्वक अक्षर ज्ञान कराती है। बच्चा बार-बार गलती करता है और माँ उसे पुनः पुनः हाथ पकड़कर लिखना सिखाती है। जब वह गलती करके नासमझ बनने का अभिनय करता है तो उसे डाँटने के स्थान पर माँ उसके भोलेपन पर हँसते हुए क्षमा कर देती है।
बच्चा भी अपनी माँ की गोद में जाकर अपने सारे दुख, परेशानियाँ और साथियों या घर के अन्य सदस्यों द्वारा किए गए अपमान आदि सब भूल जाता है। उसे वही अपनी एकमात्र शरणस्थली प्रतीत होती है। वहाँ आकर वह पूर्णतः आश्वस्त हो जाता है और माँ के बहलाने पर मुस्कुरा उठता है।
उसे हमेशा ऐसा लगता है कि माँ उसकी सारी परेशानियों या शिकायतों को ध्यान से सुनेगी और उसका उपहास नहीं करेगी। जो भी उसे भला-बुरा कहेगा, माँ उसे छोड़ेगी नहीं बल्कि उसे डाँटेगी तथा सदा उसका ही पक्ष लेगी।
उसे हमेशा यही लगता है कि उसकी माँ संसार की सबसे खूबसूरत महिला है। उसका रूठना-मानना, जिद करना सभी अपनी माँ से ही होते हैं। माँ भी उसकी सारी आवश्यकताओं को उत्साहित होकर पूर्ण करती है।
घर में रहते हुए ससुराल पक्ष के लोगों या पति के द्वारा दिए गए कितने भी दुखों और कष्टों का सामना किसी स्त्री को क्यों न करना पड़ जाए, वह अपनी सन्तान के सुख और भविष्य को देखते हुए उन्हें झेलने का प्रयास करती है।
एक माँ अपनी सन्तान जो उसका एक अंश होती है, उसकी सुख और समृद्धि की कामना करते हुए अपना जीवन जीती है। उसे मातृत्व का सुख देने वाली उसकी सन्तान फले-फूले और अपने जीवन में दुनिया की हर नेमत का भोग करे। उसे कभी किसी कष्ट का सामना न करना पड़े। माँ अपनी ममता का प्रतिदान नहीं चाहती पर सन्तान को चाहिए कि वह अपनी ऐसी माता का सम्मान और सेवा सारी आयु करे।
चन्द्र प्रभा सूद
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